जिन “अच्छे दिनों”
का सपना दिखाकर भाजपा सत्ता में आई थी अब उन “अच्छे दिनों” की असलियत बिल्कुल खुलकर लोगों के
सामने आ रही है। अपने पहले ही बजट में देश
की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम पर रेलवे, रक्षा, बीमा तथा अन्य सरकारी संस्थाओं के
क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी और निजी निवेश को खुलकर बढ़ावा दिया गया है। इसी के
साथ-साथ जनता के खून-पसीने की मेहनत से खड़े किये गए सरकारी संस्थानों को भी निजी
हाथों में सौंपने की भी तैयारी कर ली है। इसके अलावा बड़े-बड़े औद्योगिक घरानाें
को टैक्स पर मिलने वाली अरबों रुपए की छूट को बरक़रार रखा हैं। जिसका अर्थ है
पिछली सरकार द्वारा शुरू की गई नीतियों के अनुरूप ही देशी-विदेशी कम्पनियों की लूट
के लिये देश को और अधिक खुले चरागाह में तब्दील कर देना।
वहीं दूसरी तरफ़ जनता को ‘‘देशहित‘‘ के लिए कड़वे घूंट पीने को तैयार रहने
को कहा है, जिसका सीधा मतलब है राजकोषीय घाटा कम
करने के नाम पर स्वास्थ्य,
शिक्षा, रोज़ग़ार आदि के नाम पर जो भी जनकल्याणकारी योजनाएँ चल रही हैं उनमें
भारी कटौती कर उन्हें पूरी तरह से बाज़ार की ताकत़ो के हवाले कर दिया जाएगा। पूरे
चुनाव प्रचार के दौरान मोदी आने वाले अच्छे दिनों की बात करते नहीं थकते थे, परंतु सत्ता में आते ही जनता से कहा जा
रहे हैं कि उसे ‘‘अच्छे दिनों" के लिए अभी और
इंतज़ार करना पड़ेगा। परंतु प्रश्न तो यही हैं कि जिस जनता ने उन्हें भारी बहुमत
से जिताकर संसद में भेजा है उसके पक्ष में नीतियाँ बनाने के लिए उन्हें समय क्यों
चाहिये? जबकि बड़े-बड़े उद्योगपतियों के हितों
में नीतियाँ बनाने में उन्हें एक महीने से भी कम समय लगा!
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