हर बार की तरह इस बार भी 26 जनवरी यानी गणतन्त्र दिवस आकर चला गया। सन 1950 में 26 जनवरी को इसी दिन नया संविधान बनाकर सारे देश पर थोप दिया गया था। कहने को तो यह संविधान सारे देश की जनता के लिए था लेकिन इसे बनाने में देश की मेहनतकश जनता की न तो कोई भूमिका थी और न उससे कोई राय ली गई थी। जिस संविधान सभा ने इस संविधान को लिखा था उसका चुनाव 13 प्रतिशत पैसेवाले लोगों ने मिलकर किया था। फिर इसमें हैरानी की क्या बात है कि पिछले 61 साल से इस देश की मेहनतकश जनता का शोषण और लूट-खसोट इस संविधान के तहत ही जारी है! आज़ादी मिलने के 64 साल बाद भी आज आम जनता के हालात बद-से-बदतर ही हुए हैं। अर्जुन सेनगुप्त कमेटी के अनुसार देश की 77 फ़ीसदी आबादी यानी कि 84 करोड़ लोगों की औसत आय 20 रुपया रोज है। देश की 56 प्रतिशत महिलाएँ एनिमिक हैं व 46 प्रतिषत बच्चे कुपोषित हैं। तक़रीबन 7 से 8 प्रतिशत की दर से उछाल भर रही अर्थव्यवस्था वाले देश में प्रतिदिन 9000 बच्चे भूख और कुपोषण-जनित बीमारियों से मरते हैं। देश के 35 करोड़ लोगों को प्रायः भूखा सोना पड़ता है। 1997 से अब तक एक लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। धनी-ग़रीब के बीच की खाई लगातार चैड़ी होती गयी है और आज देश की ऊपर की दस प्रतिशत आबादी के पास कुल परिसम्पत्ति का 85 प्रतिशत इकठ्ठा हो गया है जबकि नीचे की साठ प्रतिशत आबादी के पास महज़ दो प्रतिशत है। सन 1990-91 के दशक में सरकार ने वायदा किया था कि उदारीकरण-निजीकरण-भूमण्डलीकरण की नीतियों के लागू होने से देश की ग़रीब जनता तक समृद्धि रिस कर चली जायेगी पर हो गया उल्टा और देश की सारी समृद्धि निचुड़कर अमीरों और सेठों की तिजोरी में चली गयी। एक ओर गोदामों में लाखों टन अनाज को सड़ाया जा रहा है पर उन्हें भूखे और ज़रूरतमंद लोगों को सस्ते में इसलिए नहीं दिया जा रहा कि कहीं बड़े पूंजीपतियों-मालिकों को घाटा ना हो जाये, यानी इंसानी जीवन से कहीं ज़्यादा ज़रुरी है मुनाफ़ा! न्यायपालिका भी इस अराजकतापूर्ण मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था पर कभी कोई सवाल नहीं उठाती क्योंकि वो भी लूट और अन्याय पर टिकी इस व्यवस्था का ही एक खम्बा मात्र है। हर साल गणतन्त्र दिवस समारोह के नाम पर करोड़ों रुपये फूँक दिये जाते हैं और लुटेरे और भ्रष्ट नेता देशभक्ति के बारे में बेशर्मी के साथ भाषण देते हैं। गणतन्त्र का जश्न उन्हें ही मनाने दीजिए जो पिछले 61 साल से देश की सारी तरक्की की मलाई चाट रहे हैं। जिस आम मेहनतकश जनता के दम पर ये सारी तरक्की और चमक-दमक है, उनके लिए न तो इस आज़ादी का कोई मतलब है, और न गणतन्त्र का और एक मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था और बाज़ार की अंधी गला-काटू होड़ के रहते हुए हो भी नहीं सकता। जब तक लूट, अन्याय और ग़ैर-बराबरी पर टिका यह सामाजिक ढाँचा बना रहेगा तब तक देश के 85 प्रतिशत ग़रीबों और मेहनतकशों की जि़न्दगी में कोई बदलाव नहीं आने वाला है। यही वो यक्ष प्रश्न है जो आज़ादी के इतने सालों बाद आज हमारे सामने है और इसी का हल हमें मिलजुल कर ढूंढना है।
कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है
Saturday, March 10, 2012
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