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Tuesday, September 6, 2011

भ्रष्टाचार, 'समस्याएँ' और "क्रांति"


अन्ना जी द्वारा 16 अगस्त को शुरू किये गये अनशन के दौरान पूरे देश के  मध्य वर्ग का एक हिस्सा जिस प्रकार सड़कों पर भ्रष्टाचार के विरोध में दिखा वह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, बल्कि लगातार बढ़ रही बेरोजगारी, गैर-बराबरी, महंगाई जैसी समस्याओं के कारण जनता में जो गुस्सा व्याप्त था वह भ्रष्टाचार के विरोध के रूप में उभर कर सामने आया। मगर सिर्फ भ्रष्टाचार को सारी समस्याओं से ऊपर रखते हुए जनता के सारे गुस्से को सिर्फ जन लोकपाल कानून पारित करवाने के आन्दोलन तक सीमित कर दिया गया। जिस तरह इस पूरे आन्दोलन को दूसरे "स्वतंत्रता संग्राम"  और एक नयी "क्रांन्ति" के रूप में प्रचारित किया गया, ऐसे में हर नागरिक को, वह चाहे इसका समर्थन करता हो या न करता हो, कुछ अहम सवालों पर सोचने की आवश्यकता है, जैसे कि
1. काम के दौरान होने वाले मानसिक और शारीरिक शोषण के साथ बेरोजगारी, जैसी सामाजिक समस्या के लिए क्या भ्रष्टाचार जिम्मेदार है? 
2. लगातार बढ़ रहे सामाजिक फासले, हर व्यक्ति में व्याप्त आजीविका की असुरक्षा, और सम्पत्ति के लोभ-लालच पर आधारित सामाजिक सम्बन्धों पर किसी कानून का क्या असर होगा, जो कि हर भ्रष्टाचार की जड़ हैं
3. क्या यह आन्दोलन जनता को समाज की समस्याओं के मूल कारण के बारे में जागरूक कर रहा है
4. इस आन्दोलन का सहारा लेकर मीडिया पूरी जनता का सारा ध्यान समाज में व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी और असमानता से हटाकर सिर्फ भ्रष्टाचार को हर समस्या के एक काल्पनिक कारण तक सीमित करने की कोशिश में क्यों लगा है
5.  क्या इस पूरे प्रचार के माध्यम से कानूनी रूप से होने वाले पूँजीवादी शोषण और अनेक कानूनी भ्रष्टाचारों को जनता की नजरों से छुपाने का प्रयास नहीं किया जा रहा है
6.  क्या जन लोकपाल के माध्यम से व्यापक जनता (सिर्फ मध्य वर्ग ही नहीं...) की पहलकदमी जागेगी, जो कि सबसे अधिक शोषित है और जो जनवाद और जनतंत्र की निर्माता होती है
7.  अन्त में, सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि (इतिहास या वर्तमान मं) क्रान्तियों का उद्देश्य तो शोषण पर आधारित आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को बदलना होना चाहिए, जबकि जन लोकपाल कानून पारित करवाने का उद्देश्य शोषण और गैर-बराबरी पर आधारित वर्तमान व्यवस्था को थोड़ा बेहतर करके जनता को यथास्थिति में बनाए रखने के प्रयास जैसा लग रहा है।
ऐसे में इसे क्रान्ति कहना क्या सही होगा? क्या सिर्फ भ्रष्टाचार समाप्त होने से कुछ मुठ्ठी भर लोगों के लोभ-लालच से पैदा हो रही गैर-बराबरी और जनता की बदहाली समाप्त हो जायेगी? यदि नहीं.. तब क्या जनता को भ्रष्टाचार से आगे बढ़कर समाज की व्यापक परिस्थितियों को समझते हुए एक क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन के लिए आगे नहीं आना चाहिए? भविष्य में हर प्रकार के शोषण को समाप्त करने के लिये जन क्रान्तियाँ जनता द्वारा ही होनी हैं, और शोषण पर आधारित व्यवस्था को किसी भी प्रकार से जारी नहीं रखा जा सकता। भगत सिंह के शब्दों में, "जब तक पहले न्याय न हो, तब तक सद्भावना की बात करना अनर्गल प्रलाप है, और जब तक इस दुनिया का निर्माण करने वालों का अपनी मेहनत पर अधिकार न हो, तब तक न्याय की बात करना बेकार है।"

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