कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Friday, December 19, 2014

धार्मिक उन्माद के इस दौर में भगत सिंह के कुछ विचार [आवेग - दिसम्बर 2014]


धार्मिक उन्माद के इस दौर में भगत सिंह के कुछ विचार

"जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिये एक क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है।... लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इन्सान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिये यह जरूरी है कि क्रान्ति की स्पिरिट ताजा की जाये, ताकि इन्सानियत की रूह में हरकत पैदा हो।"
"धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिये। जो चीज आजाद विचारों को बरदाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।इस काम के लिये सभी समुदायों के क्रान्तिकारी उत्साह वाले नौजवानों की आवश्यकता है।"
"धर्म का रास्ता अकर्मण्यता का रास्ता है, सब कुछ भगवान के सहारे छोड़ हाथ पे हाथ रखकर बैठ जाने का रास्ता है, निष्काम कर्म की आड़ में भाग्यवाद की घुट्टी पिला कर देश के नौजवानों को सुलाने का रास्ता। मैं इस जगत को मिथ्या नहीं मानता। मेरे लिए इस धरती को छोड़ कर न कोई दूसरी दुनिया है न स्वर्ग। आज थोड़े-से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नरक बना डाला है। शोषकों तथा दूसरों को गु़लाम रखने वालों को समाप्त कर हमें इस पवित्र भूमि पर फिर से स्वर्ग की स्थापना करनी पड़ेगी।"
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असल बात यह है - मज़हब तो है सिखाता आपस में बैर रखना.. हिन्दुस्तानियों की एकता मज़हबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर होगी.. एक तरफ तो ये मज़हब एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं ... लेकिन जहाँ गरीबों को चूसने और धनियों की स्वार्थ-रक्षा का प्रश्न आ जाता है, तो दोनों एक बोली बोलते हैं। (तुम्हारी क्षय)

- राहुल संकृत्यायन
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कोई नहीं पूछेगा,
कब नन्हे हाथों ने चिकने पत्थर से,
तलाब में खूबसूरत लहरें उठाई !
पूछेंगे जंग की तैयारी कब शुरू हुई?
कोई नहीं पूछेगा,
कब हुस्न कमरे में दाखिल हुआ !
पूछेंगे अवाम के खिलाफ
साजिशें कब रची गईं?
कोई नहीं पूछेगा,
अखरोट का दरख्खत कब झूम उठा,
पूछेंगे सरकार ने कब मजदूरों को
कुचल के रख दिया?
नहीं कहेंगे, कि वक्त बुरा था!
पूछेंगे कि तुम्हारे फनकार क्यों खामोश थे?
- बेर्टोल्ट ब्रेष्ट  

Monday, December 15, 2014

वर्ष दर वर्ष - क्या वाकई कुछ बदला?

१६ दिसंबर २०१२ की घटना के तुरंत बाद पूरे भारत में सड़कों, सभाओं से लेकर मीडिया और संसद तक  जोर-शोर से अपराधियों को दंड दिलाने और महिला विरोधी अपराधों को रोकने के लिए नए एवं सख्त कानून बनाने की पैरवी की गयी। इसके फलस्वरूप, नामित अपराधियों को कैद कर उन पर मुकदमा चला दिया गया और "निर्भया क़ानून" भी बना दिया गया। हांलाकि, इससे महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले अपराधो में कोई कमी नही आई है।

अगर आंकड़ो की ही बात करें तो, २०१३ में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के रिपोर्ट किये जाने वाले मामलों में लगभग दोगुनी की वृद्धि हुई, और २०१४ भी कुछ बेहतर नज़र नहीं आता| जो घटनाएँ संज्ञान में हैं उनके हिसाब से भारत में प्रति २२ मिनट में एक बलात्कार होता है जबकि सांसदों की एक कमेटी में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, वास्तविक संख्या इससे लगभग तीस गुनी अधिक है। गौरतलब है, कि निर्भया कानून के आने पर महिलाओं के खिलाफ हिंसा की परिभाषा का विस्तार हुआ है, और महिलाएं भी अब पहले से ज़्यादा इन घटनाओं को रिपोर्ट कर रहीं हैं। मगर, अभी भी बहुतायत मामले बदनामी और समाज में महिलाओं के "भविष्य की चिंता" को देखते हुए कहीं भी रिपोर्ट नहीं होते। यहा ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत में बहुतायत बलात्कार के मामलों मे पुलिस द्वारा केस दर्ज ही नही किया जाता हैं। इसके अलावा महिला-उत्पीड़न के कई मामले तो खुद पुलिस स्टेशन से ही रफा-दफा कर दिए जाते हैं।

पत्थर की मूर्ति, और गाय को माँ के रूप में पूजने, नवदुर्गा के नाम पर जश्न मनाने वाले हमारे देश में संस्कृति और महानता के ढ़ोल पीटे जाते हैं, सभी धार्मिक मान्यताओं वाले लोग एक दूसरे से अपने धर्म की महानता बखान करने में कोई कोताही नहीं करते| मगर, यही धार्मिक मगरमच्छ दहेज़-हत्या, स्त्री-उत्पीड़न, बलात्कार जैसे घिनौने अपराधों को अंजाम देते हुए तनिक भी धर्म, संस्कृति और मानवता के बारे में नहीं सोचते, एवं समाज में महिलाओं की स्थिति, चाहे वह किसी भी मान्यता की हों एक सी ही दयनीय है। यहाँ एक तरफ घोर स्त्री-विरोधी पाखण्डी बाबाओं की एक पूरी जमात है जो तमाम घिनौने स्त्री-विरोधी अपराधों को अंजाम देती हैं, तो  दूसरी तरफ हनी सिंह जैसे कलाकारभी हैं जिन्होंने नौजवानों में स्त्री-विरोधी मानसिकता पैदा करने का ठेका ले रखा है।

अगर महिलाओं की समाज में सोचनीय स्थिति के पीछे के कारणों की पड़ताल करें तो हम पाएंगे कि हमारे समाज में पतनशील पूँजीवादी संस्कृति के साथ-साथ सामंती मूल्यों का भी प्रभाव है। यहाँ एक ओर खाप पंचायतें और फ़तवे (जैसे, मोबाइल न रखना, जीन्स न पहनना, बुर्के एवं परदे में ही रहना) जारी करने वाली ताकतें मौजूद हैं, वहीं दूसरी और पूँजीवादी मीडिया द्वारा परोसी गयी बीमार मानसिकता भी मौजूद है। हमारा समाज अभी भी सदियों से चले आ रहे पितृसत्तात्मक मूल्यों को ढ़ो रहा है, जहाँ महिलाओं को केवल घर का झाड़ू-पोंछा करने वाला, और भोग की वस्तु समझा जाता रहा है। पूंजीवाद ने महिलाओं को सामंतवादी समाज की तुलना में निःसंदेह थोड़ी स्वतंत्रता प्रदान की लेकिन, ये स्वतंत्रता केवल महिलाओं के लिए एक छलावा मात्र है| पूंजीवाद के लिए महिलाओं` के रूप में एक सस्ता और भरोसेमंद श्रमिक उपलब्ध रहता है| वहीँ इसके मुनाफाखोर दलाल महिलाओं की छवि को एक माल के रूप में  बेचकर समाज में विकृति फैला रहे हैं, और उनके अधिकारों का हनन भी कर रहे हैं।

यह पूँजीवाद की विशेषता है कि वह हर चीज़ को माल बना देता है और मुनाफा कमाने के लिए किसी भी हद तक जाता है। पूँजीवादी समाज में लगातार बढ़ रहे अलगाव के फलस्वरुप पोर्न फिल्मों, सेक्स खि‍लौनों, बाल-वेश्यावृत्ति, विकृत सेक्स, विज्ञापनों आदि का कई हज़ार खरब डॉलर का भूमंडलीय बाज़ार तैयार हुआ है। जिससे मुनाफा कमाने के लिए पूँजीपति वर्ग आम मध्यवर्गीय किशोरों-नौजवानों और ग़रीब मेहनतकश जनता तक में विभिन्न संचार माध्यमों के ज़रिये रूग्ण-मानसिकता परोस रहा है।  इस घटिया पूंजीवादी संचार माध्यमों के प्रचार-प्रसार पर रोक लगाने, या व्यापक रूप से सामाजिक स्तर पर विरोध करने के लिए पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग तक आगे नहीं आता, जो कि वर्तमान पूंजीवादी समाज में बौद्धिक कंगाली को दर्शाता है|


स्त्रियों को इसी पूँजीवाद ने एक बिकने वाले माल की छवि दे दी है और इसीलिए इस छवि का समूल नाश भी पूँजीवाद के खात्मे के साथ ही होगा। आज नौजवानों, महिलाओं, मेहनतकशों, छात्रों को एकजुट होकर पूँजी की संगठित ताकत को चुनौती देनी होगी। गली-मोहल्लों में मनचलों, और शरारती तत्वों में अपराध के प्रति खौफ पैदा करने के लिए इलाकाई सुरक्षा कमेटीयाँ बनानी होंगी, नौजवानों में लगातार प्रचार-प्रसार करना होगा, घटिया उपलब्ध मीडिया का इलाकाई नाश करना होगा, और ऐसे किसी भी मीडिया को उपलब्ध करने वाले माध्यमों का कड़ा विरोध करना होगा। चूँकि, इस समस्या की जड़ पूंजीवादी मुनाफाखोरी है, इसलिए केवल पूँजीवाद के खात्मे के बाद ही नारी-मुक्ति का स्वप्न पूरा हो सकता है। और तब तक हमारे समक्ष ये प्रश्न बना रहेगा की क्या वाकई में कुछ बदला है?

Wednesday, November 19, 2014

"अच्छे दिनों" में बुरा समय



बीते कुछ महीनों से हर दिन यह प्रचार सुना जा रहा है कि अच्छे दिनआने वाले हैं और अब देश के “विकासका समय आ गया है। लेकिन कुछ महीने बीत जाने के बाद यह पता चल चुका है कि किसके अच्छे दिन और किसके विकास की बात हो रही थी। ध्यान दें तो अच्छे दिनआने के बाद पूँजीपतियों और शेयर बाजार के दलालों का मुनाफ़ा लगातार ऊपर चढ़ रहा है। नई सरकार बनने के पहले ही दिन अम्बानी और अदानी ने 7800 करोड़ का फायदा कमाया था। लेकिन अपने आस-पास समाज में लोगों का सर्वे करें तो गाँव के किसानों से लेकर शहर में काम करने वाले मजदूरों के हालात देख कर हम कह सकते हैं कि मजदूरों, किसानों, छात्रों और काम की तलाश में भटकने वाले करोड़ों बेरोजगार नौजवानों के वास्तविक जीवन पर अभी तक अच्छे दिनका कोई असर नहीं दिख रहा है। आज भी आम मेहनतकश मजदूरों और किसानों को विशेषाधिकार प्राप्त अफशरसाही, ठेकेदारों तथा पूँजीवादी दलालों द्वारा किये जा रहे अपराधों और कानूनों के उल्लंघन के विरुद्ध आवाज उठाने में काफी संघर्ष करना पड़ रहा है और उनके जिन्दा रहने के अधिकारों तक की सुनवाई के लिये अभी भी कोई विकल्प उनके सामने नहीं है।
अच्छे दिनआने के बाद कुछ आंकड़ों को देखें तो अनेक दवाइयों के दामों में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है जिनमें कैंसर की दवा के दाम 13 गुना बढ़कर 1.08 लाख हो चुके हैं। एक ओर बुलेट ट्रेन चलने वाली है और दूसरी ओर आम रेलों का किराया काफी महंगा कर दिया गया है। जनता के लिये चलाई जा रहीं कल्याणकारी योजनाओं में भी लगातार कटौती के संकेत दिख रहे हैं, और इसके साथ ही 1990 से कांग्रेस शासन में जारी निजीकरण-उदारीकरण को और आगे ले जाते हुये काम करने वाली आम आबादी के अधिकारों के लिये बने कानूनों को लगातार और भी कमजोर किया जा रहा है जिससे मेक इन इण्डियाके नाम पर साम्राज्यवादियों के सामने देश के वर्क फोर्स की बोली लगाने में आसानी हो सके और जनता की मेहनत को निजी मुनाफे की भेंट चढ़ा दिया जाये।
आज देश के हर नागरिक को प्रचार के माध्यम से फैलाये जा रहे इन भ्रमों को समझना होगा जिससे आने वाले समय में जनता के हाथों वास्तव में अच्छे दिनों का सूत्रपात करने के लिये वास्तव में नई व्यवस्था खड़ी की जा सके।
जनसत्ता (14 नवम्बर) में प्रकाशित -

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