यूनीसेफ द्वारा जारी एक
ताजा रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में हर साल बाईस लाख बच्चे निमोनिया और हैंजे
की चपेट में आकर अपनी जान गँवा बैठते हैं। इनमें से छह लाख बच्चे अकेले भारत में
दम तोड़ देते हैं। एक और रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर रोज तकरीबन नौ हजार बच्चे
भूख और कुपोषण के कारण अपनी जान गँवा बैठते हैं, तथा 45% बच्चे कुपोषण का
शिकार हैं। शर्मसार कर देने वाले ये आँकड़े उस देश के हैं जो खुद को अगली महाशक्ति
के रुप में प्रचारित करता है। ऐसा नहीं है कि हर साल होने वाली इन मौतों को रोका
नहीं जा सकता है ज़्यादातर मामलों में इन मौतों के मुख्य कारण हैजा, निमोनिया, मलेरिया जैसी बिमारियाँ हैं जो लाइलाज बीमारियाँ नहीं हैं
तथा अगर सरकार चाहे तो इन सभी बीमारियों की रोकथाम तथा पूर्ण इलाज संभव है। परंतु
इस देश की तमाम चुनावी पार्टियों और उनके नेताओं को गरीब मेहनतकश जनता से ज़्यादा
टाटा, बिड़ला, अंबानी और कुछ चंद अमीर लोगों की चिंता है जो
इस देश की कुल आबादी का केवल 10-15% हिस्सा हैं।
इतनी गंभीर और संकटमय स्थिति होने के बावजूद सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती
है, आज भी सरकार कुल सकल
घरेलू उत्पाद (जी.ड़ी.पी.) का केवल
1.4% हिस्सा ही स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं पर खर्च
करती है। ऐसा नहीं है कि केवल किसी एक पार्टी के शासन में ही ऐसी स्थिति रही हो,
आजादी के इन 65 वर्षों में कई चुनावी पार्टियों ने सत्ता संभाली परंतु इस
दयनीय स्थिति को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पूर्वी
उत्तर प्रदेश और बिहार में हर साल दिमागी बुखार से होने वाली मौतें हैं, कार्पोरेट मीडिया के द्वारा विकास पुरुष के नाम
से प्रचारित किए जाने वाले नीतीश कुमार के बिहार में ही इस साल अब तक 227 बच्चे इस बीमारी की चपेट में आकर अपनी जान गँवा बैठे हैं।
सन 1991 से जारी उदारीकरण,
निजीकरण की नीतियों को जारी रखते हुए सरकार और
तमाम चुनावी पार्टियाँ स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषय से भी अपना पल्ला झाड़ उसे
भी निजी हाथों में सौंप देना चाहती हैं। सरकारी अस्पतालों की संख्या बढ़ाने तथा
उनकी खराब अवस्था को सुधारकर अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ लोगों को प्रदान करने के
बजाय सरकार अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने के नाम पर निजी अस्पतालों को
सस्ती कीमत पर जमीन देकर उनके मुनाफे को बढ़ाने में लगी हुई है। सभी को समान एवं
अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है तथा यह हर नागरिक
का अधिकार भी है। लूट-खसोट पर टिकी इस व्यवस्था ने स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीज को
भी एक माल बनाकर रख दिया है, जिसे सिर्फ वही
खरीद सकता है जिसके पास उसकी कीमत चुकाने की क्षमता है। अतः सबको समान तथा अच्छी
स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना इस मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था में संभव नहीं है।
सिर्फ इस अमानवीय व्यवस्था को बदलकर एक मानवीय व्यवस्था की स्थापना द्वारा ही ऐसा
संभव है।
(संपर्क - जागरूक नागरिक
मंच, 9910146445, 9911583733)
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