
1.4% हिस्सा ही स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं पर खर्च
करती है। ऐसा नहीं है कि केवल किसी एक पार्टी के शासन में ही ऐसी स्थिति रही हो,
आजादी के इन 65 वर्षों में कई चुनावी पार्टियों ने सत्ता संभाली परंतु इस
दयनीय स्थिति को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पूर्वी
उत्तर प्रदेश और बिहार में हर साल दिमागी बुखार से होने वाली मौतें हैं, कार्पोरेट मीडिया के द्वारा विकास पुरुष के नाम
से प्रचारित किए जाने वाले नीतीश कुमार के बिहार में ही इस साल अब तक 227 बच्चे इस बीमारी की चपेट में आकर अपनी जान गँवा बैठे हैं।
सन 1991 से जारी उदारीकरण,
निजीकरण की नीतियों को जारी रखते हुए सरकार और
तमाम चुनावी पार्टियाँ स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषय से भी अपना पल्ला झाड़ उसे
भी निजी हाथों में सौंप देना चाहती हैं। सरकारी अस्पतालों की संख्या बढ़ाने तथा
उनकी खराब अवस्था को सुधारकर अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ लोगों को प्रदान करने के
बजाय सरकार अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने के नाम पर निजी अस्पतालों को
सस्ती कीमत पर जमीन देकर उनके मुनाफे को बढ़ाने में लगी हुई है। सभी को समान एवं
अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है तथा यह हर नागरिक
का अधिकार भी है। लूट-खसोट पर टिकी इस व्यवस्था ने स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीज को
भी एक माल बनाकर रख दिया है, जिसे सिर्फ वही
खरीद सकता है जिसके पास उसकी कीमत चुकाने की क्षमता है। अतः सबको समान तथा अच्छी
स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना इस मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था में संभव नहीं है।
सिर्फ इस अमानवीय व्यवस्था को बदलकर एक मानवीय व्यवस्था की स्थापना द्वारा ही ऐसा
संभव है।
(संपर्क - जागरूक नागरिक
मंच, 9910146445, 9911583733)
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