पिछले कुछ वर्षों में
बहुचर्चित निर्भया काण्ड और बदायूं काण्ड को छोड़ दें तो इन मसलों के अलावा भी ऐसी
बहुत सी नारी-विरोधी घृणित घटनायें हुईं हैं जिन पर मीडिया ने चुप्पी साधे रखी। ‘यत्र नार्यस्तु
पूज्यते’ की डींग मारने
वाले हमारे देश में भगाणा में दलित बच्चियों के साथ सवर्ण दबंगों द्वारा किये गये
बलात्कार का मसला हो या आदिवासी और ग़रीब इलाकों में बच्चियों एवं महिलाओं की
तस्करी के मसले हों, ये सभी मसले देश
के “चिन्ताशील” मीडिया में वैसी
जगह नहीं बना पाते जैसे कि मसलन मशहूर हस्तीयों के निजी जीवन के फूहड़ किस्से। ऐसे
मसलों पर मीडिया में होने वाली चर्चा समस्या की जड़ तक पहुंचने के बजाये मात्र कुछ सतही लक्षणों
पर केंद्रित होकर एक तमाशे के रूप में समाप्त हो जाती है जिसमें अंत में मात्र
पुलिस को निकम्मा कहकर या उल्टे महिलाओं के ही पहनावे एवं आधुनिकता और खुलेपन को
ही जिम्मेदार ठहराकर या चुनावी मदारी पार्टीयों द्वारा एक दूसरे पर
आरोप-प्रत्यारोप लगाकर चर्चा का अंत हो जाता है! खाते-पीते मध्यवर्ग का
एक हिस्सा ऐसी घटनाओं के विरोध में कुछ दिनों का धरना एवं जंतर-मंतर पर मोमबत्ती
प्रदर्शन की रस्म निभाकर और घटना की भर्त्सना मात्र करके अपने
कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है! महिलाओं की समस्या पर अपने घड़ियाली आंसू बहाकर
जनता में अपनी ’’जनपक्षधर मीडिया’’ की छवि को चमकाकर
अपनी टीआरपी बढ़ाने के बाद फिर से वही फूहड़ अश्लील विज्ञापन-फिल्मों-गानों का दौर
शुरु हो जाता है जो महिलाओं को एक बिकाउ माल के रूप में पेश
करके आम जनता में दुबारा उन्ही स्त्री-विरोधी मूल्यों को पैठाता है! क्या ऐसी
घटनाओं के पीछे महिलाओं की आर्थिक-सामाजिक स्थिति, जातीय उत्पीड़न के आर्थिक पहलू, तथा पूँजीवादी ‘खाओ-पियो मौज करो‘ की वाहियात
कुसंस्कृति पर विचार नहीं किया जाना चाहिये जो कि ऐसी समस्याओं का मूल कारण हैं।
कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है
Tuesday, July 1, 2014
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