पिछले कुछ दिनों से दुनिया की जनसंख्या 7 बिलियन पहुँच जाने पर अलग-अलग प्रकार के आंकड़ों को लेकर अनेक अर्थशास्त्रियों में बहसें चल रही हैं जो जनसंख्या वृद्धि को हर समस्या का कारण सिद्ध करने की कोशिश में लगे हुए हैं। प्रमुख अखबार, टी.वी चैनल अपनी-अपनी रिपोर्ट के आधार पर यह साबित करने में जुटे रहे कि बेरोज़गारी, कुपोषण और भुखमरी की मुख्य वजह सिर्फ़ जनसंख्या वृद्धि ही है। परन्तु अगर हम आँकड़ों पर नज़र डालें तो सच्चाई कुछ और ही बयान करती नज़र आती है,
पहले पूरी दुनिया के संसाधनों के उपभोग और जनता की सामाजिक परिस्थिति को देखते है। द हिन्दू (1 नवंबर 2011) और विश्व बैंक द्वारा दिये गये कुछ आँकड़ों के अनुसार ऊपर के सबसे अमीर 20 प्रतिशत लोग कुल उपलब्ध संसाधनों के 75 प्रतिशत का उपभोग करते हैं (जबकि उन्हें उत्पादन करने के लिये कोई हाथ-पैर नहीं चलाने पड़ते), जबकि नीचे के सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोग कुल उपलब्ध संसाधनों के 1.5 प्रतिशत का ही उपभोग करते हैं या कहें कि बचे हुए 80 प्रतिशत लोग 25 प्रतिशत उपभोग पर गुज़ारा कर रहे हैं। और यह 80 प्रतिशत लोग समाज में मौजूद हर चीज़ को अपनी मेहनत से पैदा करते हैं, लेकिन अपने लिये नहीं बल्कि दूसरों के लिये, जैसा कि ऊपर के आंकड़ों से स्पष्ट है।
2007 के बाद चार वर्षों में भारत में खाद्य मूल्यों में 40 फ़ीसदी से 55 फ़ीसदी की बढोत्तरी हुई है और भूख से पीडि़त लोगो की संख्या बढी है, और यह ऐसे समय में हो रहा है जब देश मे फसलों का बम्पर उत्पादन हुआ है और 100 लाख टन गेहूँ गोदामों मे सड़ता रहा और दूसरी ओर अनेक ग़रीब बच्चे भूख और कुपोषण के कारण तड़पते हुए मरते रहे। द हिन्दू (13 जून 2011) में दिये गये आंकड़ों के अनुसार भारत में उत्पादन के कुल अनाज का 30 प्रतिशत हिस्सा भण्डारण के लिये गोदाम न होने के कारण आज भी नष्ट हो जाता है। यह सच्चाई तब भी सामने आ जाती है जब हम पाते हैं कि भारत मे हर साल करीब बीस लाख बच्चे पाँच साल की उम्र से पहले मर जाते हैं और 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं परन्तु भारत सरकार अपने कुल बजट का केवल 0.5 प्रतिशत हिस्सा ही स्वास्थय सेवाओं पर खर्च करती है।
ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट, ओवरव्यू, द यूएनडीपी, के अनुसार दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आवश्यक अतिरिक्त खर्च 40 अरब डालर होगा और कुछ विशेष मदों पर सालाना व्यय के आँकड़ों की सूची देखें।
इन सारे आँकड़ों को देखकर स्वयं ही स्पष्ट हो जाता है कि समस्या जनसंख्या या संसाधनों की कमी नहीं है, बल्कि कुछ लोगों द्वारा प्राकृतिक-सामाजिक संपदा पर किया गया कब्ज़ा है, जो अपने मुनाफे़ और अति विलासिता के लिये लगातार बहुसंख्यक जनता के शोषण में लिप्त हैं, और जनता द्वारा पैदा किए जाने वाले संपूर्ण सामाजिक उत्पादन के 75 प्रतिशत हिस्से का उपभोग कर रहे हैं। इन आँकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि जनता की बदहाली का कारण पूरी प्राकृतिक-सामाजिक सम्पदा और उत्पादन के साधनों पर कुछ लोगों द्वारा अपने स्वार्थ, लोभ और निजी हितों के लिये किया गया कब्जा है।
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