१६ दिसंबर २०१२ की घटना
के तुरंत बाद पूरे भारत में सड़कों, सभाओं से लेकर मीडिया और
संसद तक जोर-शोर से अपराधियों को दंड
दिलाने और महिला विरोधी अपराधों को रोकने के लिए नए एवं सख्त कानून बनाने की पैरवी
की गयी। इसके फलस्वरूप, नामित अपराधियों को कैद कर उन पर मुकदमा चला दिया गया और
"निर्भया क़ानून" भी बना दिया गया। हांलाकि, इससे महिलाओं के खिलाफ़
होने वाले अपराधो में कोई कमी नही आई है।
अगर आंकड़ो की ही बात करें तो, २०१३ में महिलाओं के
खिलाफ हिंसा के रिपोर्ट किये जाने वाले मामलों में लगभग दोगुनी की वृद्धि हुई, और २०१४ भी कुछ बेहतर नज़र
नहीं आता| जो घटनाएँ संज्ञान में हैं उनके हिसाब से भारत में प्रति २२
मिनट में एक बलात्कार होता है जबकि सांसदों की एक कमेटी में प्रस्तुत रिपोर्ट के
अनुसार, वास्तविक संख्या इससे लगभग तीस गुनी अधिक है। गौरतलब है, कि निर्भया कानून के आने पर
महिलाओं के खिलाफ हिंसा की परिभाषा का विस्तार हुआ है, और महिलाएं भी अब पहले से
ज़्यादा इन घटनाओं को रिपोर्ट कर रहीं हैं। मगर, अभी भी बहुतायत मामले
बदनामी और समाज में महिलाओं के "भविष्य की चिंता" को देखते हुए कहीं भी
रिपोर्ट नहीं होते। यहा ध्यान देने योग्य बात यह है कि
भारत में बहुतायत बलात्कार के मामलों मे पुलिस द्वारा केस दर्ज ही नही किया जाता
हैं। इसके अलावा महिला-उत्पीड़न के कई मामले तो खुद पुलिस स्टेशन से ही रफा-दफा कर
दिए जाते हैं।
पत्थर की मूर्ति, और गाय को माँ के रूप में
पूजने, नवदुर्गा के नाम पर जश्न मनाने वाले हमारे देश में संस्कृति
और महानता के ढ़ोल पीटे जाते हैं, सभी धार्मिक मान्यताओं वाले लोग एक दूसरे से अपने धर्म की
महानता बखान करने में कोई कोताही नहीं करते| मगर, यही धार्मिक मगरमच्छ दहेज़-हत्या, स्त्री-उत्पीड़न, बलात्कार जैसे घिनौने
अपराधों को अंजाम देते हुए तनिक भी धर्म, संस्कृति और मानवता के
बारे में नहीं सोचते, एवं समाज में महिलाओं की
स्थिति, चाहे वह किसी भी मान्यता की हों एक सी ही दयनीय है। यहाँ एक तरफ घोर
स्त्री-विरोधी पाखण्डी बाबाओं की एक पूरी जमात है जो तमाम घिनौने स्त्री-विरोधी
अपराधों को अंजाम देती हैं, तो दूसरी तरफ हनी सिंह जैसे “कलाकार” भी हैं जिन्होंने
नौजवानों में स्त्री-विरोधी मानसिकता पैदा करने का ठेका ले रखा है।
अगर महिलाओं की समाज में
सोचनीय स्थिति के पीछे के कारणों की पड़ताल करें तो हम पाएंगे कि हमारे समाज में
पतनशील पूँजीवादी संस्कृति के साथ-साथ सामंती मूल्यों का भी प्रभाव है। यहाँ एक ओर
खाप पंचायतें और फ़तवे (जैसे, मोबाइल न रखना, जीन्स न पहनना, बुर्के एवं परदे में ही
रहना) जारी करने वाली ताकतें मौजूद हैं, वहीं दूसरी और पूँजीवादी
मीडिया द्वारा परोसी गयी बीमार मानसिकता भी मौजूद है। हमारा समाज अभी भी सदियों से
चले आ रहे पितृसत्तात्मक मूल्यों को ढ़ो रहा है, जहाँ महिलाओं को केवल घर
का झाड़ू-पोंछा करने वाला, और भोग की वस्तु समझा जाता रहा है। पूंजीवाद ने महिलाओं को
सामंतवादी समाज की तुलना में निःसंदेह थोड़ी स्वतंत्रता प्रदान
की लेकिन, ये स्वतंत्रता केवल
महिलाओं के लिए एक छलावा मात्र है| पूंजीवाद के लिए महिलाओं` के रूप में एक सस्ता और भरोसेमंद श्रमिक उपलब्ध रहता है| वहीँ इसके मुनाफाखोर दलाल महिलाओं की छवि को एक माल के रूप
में बेचकर समाज में विकृति फैला रहे हैं, और उनके अधिकारों का हनन
भी कर रहे हैं।
यह पूँजीवाद की विशेषता
है कि वह हर चीज़ को माल बना देता है और मुनाफा कमाने के लिए किसी भी हद तक जाता
है। पूँजीवादी समाज में लगातार बढ़ रहे अलगाव के फलस्वरुप पोर्न फिल्मों, सेक्स खिलौनों, बाल-वेश्यावृत्ति, विकृत सेक्स, विज्ञापनों आदि का कई
हज़ार खरब डॉलर का भूमंडलीय बाज़ार तैयार हुआ है। जिससे मुनाफा कमाने के लिए
पूँजीपति वर्ग आम मध्यवर्गीय किशोरों-नौजवानों और ग़रीब मेहनतकश जनता तक में
विभिन्न संचार माध्यमों के ज़रिये रूग्ण-मानसिकता परोस रहा है। इस घटिया पूंजीवादी संचार माध्यमों के
प्रचार-प्रसार पर रोक लगाने, या व्यापक रूप से सामाजिक स्तर पर विरोध करने के
लिए पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग तक आगे नहीं आता, जो कि वर्तमान पूंजीवादी
समाज में बौद्धिक कंगाली को दर्शाता है|
स्त्रियों को इसी पूँजीवाद
ने एक बिकने वाले माल की छवि दे दी है और इसीलिए इस छवि का समूल नाश भी पूँजीवाद
के खात्मे के साथ ही होगा। आज नौजवानों, महिलाओं, मेहनतकशों, छात्रों को एकजुट होकर
पूँजी की संगठित ताकत को चुनौती देनी होगी। गली-मोहल्लों में मनचलों, और शरारती तत्वों में अपराध
के प्रति खौफ पैदा करने के लिए इलाकाई सुरक्षा कमेटीयाँ
बनानी होंगी, नौजवानों में लगातार प्रचार-प्रसार करना होगा, घटिया उपलब्ध मीडिया का
इलाकाई नाश करना होगा, और ऐसे किसी भी मीडिया को उपलब्ध करने वाले माध्यमों का कड़ा
विरोध करना होगा। चूँकि, इस समस्या की जड़ पूंजीवादी मुनाफाखोरी है, इसलिए केवल पूँजीवाद के
खात्मे के बाद ही नारी-मुक्ति का स्वप्न पूरा हो सकता है। और तब तक हमारे समक्ष ये
प्रश्न बना रहेगा की क्या वाकई में कुछ बदला है?
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