मुज़फ़्फरनगर दंगों के बाद हजारों लोग अपने परिवार सहित बेघर होकर राहत शिविरो में पड़े हुए हैं जहाँ अब तक ठंड से लगभग 40 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। हमारे देश में धार्मिक दंगों तथा जातीय हिंसा में या किसी अन्य प्राकृतिक आपदा तथा ”विकास” परियोजनाओं के नाम पर लोग उजाड़े जा रहे हैं। मुज़फ़्फरनगर के दंगे इसी क्रम में सबसे तत्कालीन घटना हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार आजादी से लेकर अब तक भारत में लगभग 60 से 65 लाख लोग इस तरह विस्थापित हुए हैं, जो तुलनात्मक रूप में पूरे विश्व में सबसे ज्यादा है।
अपनी घर-जमीन से इस तरह की घटनाओं में उजाड़े गये लोगों के सामने आजीविका और ज़िन्दा रहने के कई मूलभूत सवाल मुँह खोले खड़े रहते हैं। सरकार द्वारा दिया जाने वाला हर्ज़ाना एक तात्कालिक माँगों को पूरा कर सकता है, परन्तु यदि जनवादी अधिकारों की बात छोड़ दें तब भी देश का नागरिक होने के नाते मूल नागरिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये जरूरी है कि सरकार ऐसे सभी परिवारों के पुनर्वास के लिये पूरे साधन उपलब्ध कराये। जिनमें सबसे पहला सवाल है आवास और रोजगार का और फिर शिक्षा और स्वास्थय तथा अन्य सुविधाएँ।
लेकिन मुज़फ़्फरनगर दंगा पीढ़ितों के लिये पुनर्वास तो दूर बल्कि सिर्फ़ हर्ज़ाना देने का कर्मकाण्ड करके सरकार उनके लिये लगाये गये कैम्पों को भी उजाड़ रही है। वैसे तो पूँजीवाद में सरकार किसी भी मेहनतकश इंसान के जीने के अधिकार, यानि रोजगार, की कोई गारण्टी नहीं देती, लेकिन इस तरह की घटनाओं में सत्ता का जनविरोधी चरित्र नग्न रूप में सामने आ जाता है। जैसा कि किसी भी अन्य बेरोज़गार व्यक्ति के साथ होता है यह उजड़े हुए लोग महिलाओं और छोटे बच्चों सहित सिर्फ दो वक्त कि रोटी कमाने के लिए कारखानों में ठेके पर बेहद कम मज़दूरी में 12-16 घंटे जानवरों की तरह काम करते हैं, या कही रिक्शा चलाकर अपना पेट पालते हैं, और देश के ”विकास” के लिये अमानवीय हालातों में काम करते हुये इसी तरह अपना पूरा जीवन गुजार देते हैं। वर्तमान व्यवस्था में लोगों की इस तरह की बर्बादी का समाधान इसका क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा किये बिना सम्भव नहीं है।
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