दिल्ली में 16 दिसम्बर 2012 को हुई घटना के बाद से महिलाओं के खि़लाफ़ घिनौने अपराधों की बाढ़ सी आयी हुई है।
ये कैसे समाज में जी रहे हैं आज हम लोग? किस ज़मीन पर पैदा हो रहे हैं ये ज़हरीले साँप।इस प्रकार के
अपराधों में अव्वल तो पुलिस रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करती है, जाँच
करती भी है तो भारत में बलात्कार के 74 प्रतिशत आरोपी छूट जाते हैं और बहुत
से मामलों की रिपोर्ट ही नहीं लिखी जाती। ऐसे अपराधों में पिछले दो दशकों
में जो तेज़ी आयी है उसका एक कारण छुपा है उन नवउदारवादी लुटेरी आर्थिक
नीतियों में जिसके चलते खाओ-पीओ-ऐश करो की बीमार संस्कृति पूरे देश में पसरी
है। पूँजीवादी लोभ-लालच और घोर ऐंद्रिक भोगवादी कुसंस्कृति ने स्त्रियों को
एक ‘माल‘ बना डाला
है। इन लुटेरी आर्थिक नीतियों के चलते एक तरफ़ एक पतित नवधनाढ्य वर्ग पैदा हुआ है जो शराब
के नशे में काले शीशे लगी गाडि़यों में महिलाओं को खींचकर उनसे बलात्कार
करता है। वहीं दूसरी तरफ़ मेहनतकश वर्गों के एक छोटे से हिस्से का भी
बेरोज़ग़ारी, ग़रीबी
आदि की मार से उपजी निराशा, हताशा, कुण्ठा के चलते भयंकर अमानवीकरण हुआ है और ये लम्पट
सर्वहारा भी इसी नवधनाढ्य वर्ग की कुसंस्कृति और तौर-तरीकों का अनुसरण करते
हुये उनके पिछलग्गू बन जाते हैं। अनायास नहीं है कि गांव-देहातों में ग़रीब व दलित
महिलाओं के साथ बदसलूकी का मामला हो या शहर में बसों/ सड़कों पर चलती आम महिलाओं का मसला हो, दोनों
जगह इन्हीं तत्वों का हाथ इन अपराधों में आपको साफ़ नज़र आ जायेगा।
बेशक, इन स्त्री-विरोधी अपराधों को पूरी तरह तो तभी ख़त्म किया जा सकता है जब इन्हें बढ़ावा देनेवाले आर्थिक-सामाजिक ढाँचे को ही बदल डाला जाये। लेकिन तब तक तक क्या हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे रहा जाये? क़ानूनों को सख़्त बनाने, फ़ास्ट-ट्रैक अदालतें लगाकर नियत समय में अपराधियों को उचित सज़ाएँ देने और क़ानूनी ख़ामियों को दूर करने की तात्कालिक माँगें तो ज़रूरी हैं। ऐसे मामलों में संबंधित जाँच-अधिकारी की जि़म्मेदारी भी तय की जानी चाहिये व इरादतन या गैर-इरादतन सही जाँच न करने पर उन्हें भी कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिये। लेकिन इसके साथ ही कालोनियों-मुहल्लों में हमें चौकसी दस्ते बनाने होंगे जिनमें स्वयं स्त्रियाँ और नौजवान शामिल हों। शराब और नशे के कारोबार के तमाम अड्डों, अश्लील क्लिपिंग्स डाउनलोड करने वाली मोबाइल रीचार्जिंग की दुक़ानों,लम्पट तत्वों के उठने-बैठने के तमाम अड्डों आदि पर इन चौकसी दस्तों को धावा बोलना चाहिए,ठीक वैसे ही जैसे कभी उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ की बहादुर महिलाओं ने किया था। अग़र हमें अपनी बच्चियों को बचाना है, स्त्रियों के सम्मान की हिफ़ाज़त करनी है, तो ये करना ही होगा। और कोई चारा भी तो नहीं है सिवाय इसके कि अपनी हिफ़ाजत स्वयं की जाये और अपनी आज़ादी व सम्मान के लिये डट कर लड़ा जाये!
बेशक, इन स्त्री-विरोधी अपराधों को पूरी तरह तो तभी ख़त्म किया जा सकता है जब इन्हें बढ़ावा देनेवाले आर्थिक-सामाजिक ढाँचे को ही बदल डाला जाये। लेकिन तब तक तक क्या हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे रहा जाये? क़ानूनों को सख़्त बनाने, फ़ास्ट-ट्रैक अदालतें लगाकर नियत समय में अपराधियों को उचित सज़ाएँ देने और क़ानूनी ख़ामियों को दूर करने की तात्कालिक माँगें तो ज़रूरी हैं। ऐसे मामलों में संबंधित जाँच-अधिकारी की जि़म्मेदारी भी तय की जानी चाहिये व इरादतन या गैर-इरादतन सही जाँच न करने पर उन्हें भी कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिये। लेकिन इसके साथ ही कालोनियों-मुहल्लों में हमें चौकसी दस्ते बनाने होंगे जिनमें स्वयं स्त्रियाँ और नौजवान शामिल हों। शराब और नशे के कारोबार के तमाम अड्डों, अश्लील क्लिपिंग्स डाउनलोड करने वाली मोबाइल रीचार्जिंग की दुक़ानों,लम्पट तत्वों के उठने-बैठने के तमाम अड्डों आदि पर इन चौकसी दस्तों को धावा बोलना चाहिए,ठीक वैसे ही जैसे कभी उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ की बहादुर महिलाओं ने किया था। अग़र हमें अपनी बच्चियों को बचाना है, स्त्रियों के सम्मान की हिफ़ाज़त करनी है, तो ये करना ही होगा। और कोई चारा भी तो नहीं है सिवाय इसके कि अपनी हिफ़ाजत स्वयं की जाये और अपनी आज़ादी व सम्मान के लिये डट कर लड़ा जाये!
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