पिछले दिनों
सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा के अधिकार को प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार मानते हुए
उसे एक क़ानून का दर्जा दिया है जिसके अनुसार अब से 6 से 14 साल तक के
बच्चों को मुफ़्त व अनिवार्य शिक्षा देना राज्य की जि़म्मेदारी है। इसी के साथ निजी
स्कूलों को भी 25 प्रतिशत सीटें
ग़रीब घरों से आने वाले बच्चों के लिए रखनी होगी। बहुत से लोगों को यह क़ानून बड़ा
क्रांतिकारी लग सकता है। पर ज़रा सोचिए कि क्या ये हमारे लिये शर्म की बात नहीं है
कि आज़ादी मिलने के 64 साल बाद भी देश
की आधी से अधिक आबादी इस बुनियादी अधिकार तक से वंचित है। जबकि 1947 में वादा किया
गया था कि संविधान लागू होने के 10 वर्श के अंदर 6 से 14 साल तक के बच्चों को मुफ़्त व अनिवार्य शिक्षा देने का लक्ष्य
प्राप्त कर लिया जायेगा।
शिक्षा का अधिकार
क़ानून केवल प्राथमिक स्तर की शिक्षा को ही अनिवार्य बनाने की बात करता है
परंतु उच्च शिक्षा की जि़म्मेदारी से सरकार को बरी कर देता है! यानी सरकार ने आपकी
सामने वाली जेब में 1 पैसा डालकर पीछे
की जेब से 10 पैसे निकाल लिये
और आपको पता भी नहीं चला क्योंकि केवल प्राथमिक शिक्षा प्राप्त बच्चा तो कोई भी
सम्मानजनक रोजग़ार नहीं प्राप्त कर पायेगा! केवल प्राथमिक शिक्षा पाकर ये बच्चे
कारखानों में देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लिये सस्ता श्रम उपलब्ध करायेंगें और
इनके श्रम का शोषण करके पूजीपति वर्ग और मुनाफ़ा कूटेगा जिससे धनी-ग़रीब की खाई और चैड़ी हो
जायेगी और इन बच्चों के हिस्से आयेगी कंगाली और ग़रीबी।
निजी स्कूलों में
ग़रीबों के लिये 25 प्रतिशत आरक्षण
में भी यही पेच है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश के कुल स्कूलों में इस समय 78 प्रतिशत स्कूल
सरकारी हैं जिनमें इस समय 67
प्रतिशत बच्चे
पढ़ रहे हैं। देश के कुल 21
प्रतिशत निजी
स्कूलों में से 14 प्रतिशत गैर
सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक समुदाय के स्कूल हैं जिन्हें इस क़ानून के दायरे से
बाहर रखा गया है। यानी केवल 10 प्रतिशत स्कूल ही इस क़ानून के दायरे में आते हैं यानी ऊंट
के मुंह में जीरा! तमाम सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के बजाय सरकार मात्र 10 प्रतिशत निजी
स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें
आरक्षित करके सबको समान और अनिवार्य शिक्षा देने के अपने दायित्व से पल्ला झाड़ना
चाहती है। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल तो खुलेआम कह ही चुके हैं कि शिक्षा भी
एक माल है - जिसकी औकात हो वो उतनी शिक्षा खरीद ले !! पर देश के करोड़ों गरीब
मेहनतकश जिन्हें कठोर मेहनत के बावजूद ठीक से खाना तक नहीं मिलता वे इस मंहगे होते
माल को कैसे खरीद सकते हैं ? पर मुनाफे की हवस पर टिकी व्यवस्था में यही हो सकता है। 1990 के बाद से जारी ‘‘उदारीकरण, निजीकरण, भूमण्डलीकरण‘‘ की नीतियों के
चलते सरकारें सब कुछ निजी पूंजीपतियों के हाथों में बेच रही हैं ताकि वे अकूत
मुनाफ़ा कूट सकें और अब सरकार ने जनता का अनिवार्य व मुफ्त शिक्षा प्राप्त करने का
बुनियादी हक़ भी पूंजीपतियों को बेच दिया है ! इससे पहले कि धीरे-धीरे करके हमारे
तमाम अधिकार कुर्क हो जाएं और हमारा सब कुछ छीनकर सरकार चंद पूंजीपतियों के हाथों
में बेच डाले, हमें इसे रोकने
के लिये मिलजुल कर क़दम उठाने होंगे। हमें तो ऐसा ही लगता है। आपको क्या लगता है ?
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