गौतम बुद्ध के बचपन से जुड़ी एक पुरानी कहानी के अनुसार उनके पिता ने अपने महल के चारों तरफ़ ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी कर रखी थीं। महल के अंदर मनोरंजन के पूरे इंतज़ाम किये गये थे। यह सब इसलिए किया गया ताकि महल के अंदर की चमक-दमक को देख बुद्ध यह भूल जायें कि महल की इस नकली चमक-दमक के बाहर भी एक और दुनिया है जहाँ भूख है, ग़रीबी है, बीमारी है। अगर हम आज के समय को देखें तो हम पायेंगे कि ऐसा ही कुछ हमारे नौजवानों के साथ भी किया जा रहा है। एक तरफ़ तो बड़े-बड़े मॉल, लम्बी-चैड़ी सड़कें और उन पर दौड़ती महँगी विदेशी गाडि़याँ, मोबाइल फ़ोन, टी.वी., फ्रिज आदि की लगातार बढ़ती बिक्री के आँकड़ों के माध्यम से हमें यह बताने की कोशिश की जा रही है कि भारत तेज़ी से विकास की राह पर है। टीवी सीरियलों और विज्ञापनों से ऐसी छवि बनाने की कोशिश की जाती है जैसे नौजवान होने का मतलब है बस खाओ-पिओ और ऐश करो! अगर नौजवानी सिर्फ़ ऐश के लिए ही है तब तो भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव नौजवान थे ही नहीं। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपये रोज़ से कम में गुज़ारा करती है, एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 9000 बच्चे हर रोज़ भूख और कुपोषण की वजह से दम तोड़ देते हैं। दूसरी तरफ़ मेहनतकशों की मेहनत को लूट कर मुट्ठीभर लोग ऐशो-आराम की जि़न्दगी जी रहे है। क्या एक नौजवान होने के नाते हमारा यह फ़र्ज़ नहीं बनता कि हम इस अन्याय के खिलाफ़ आवाज उठायें? आज जब दुनिया भर के नौजवान अन्याय के विरुद्ध अपने-अपने देश में आवाज़ उठा रहे हैं, चाहे वह मिस्र हो, ग्रीस या फि़र अमेरिका, तो क्या भारत के नौजवान चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठे रह सकते हैं? अब वक्त आ गया है कि हम भी अन्याय के खि़लाफ़ अपनी आवाज़ उठायें और इस नकली और बनावटी चमक-दमक वाली जिन्दगी को छोड़ उस सपने को पूरा करने के लिए कदम बढायें जिस सपने को लेकर भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे शहीद इस उम्मीद के साथ फाँसी चढ़े थे कि भारत के नौजवान उसे पूरा करेंगे। एक ऐसी दुनिया बनाने का सपना जहाँ कोई किसी का शोषण ना करता हो, जहाँ कोई बच्चा भूख की वजह से ना मरता हो और जहाँ अमीर और ग़रीब का फ़ासला ना हो।
कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है
Sunday, December 18, 2011
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