बहुत सारे लोगों का ऐसा मानना है कि केवल
लोकसभा, विधानसभा,
तथा स्थानीय निकाय के चुनावों में ज्यादा से ज्यादा संख्या में मतदान
करना ही एक मजबूत “लोकतंत्र”
की निशानी है और एक “नागरिक
कर्तव्य“ है। परंतु आजादी के 68
सालों में मतदान करने का अपना “नागरिक कर्तव्य” पूरा करने के बावजूद आम जनता जिस कठिन
हालात में अपना जीवन व्यतीत कर रही है उसमें कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा है। आज 68
सालों बाद भी देश की व्यापक जनता निश्चित रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, आवास, पीने
का साफ पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है।
ऐसे वर्तमान हालातों में यह हर नागरिक का
कर्तव्य है कि अन्यायपूर्ण जनद्रोही नीतियों का विरोध करने के लिये सामने आये और
यह हर संवेदनशील व्यक्ति का जनवादी अधिकार और नागरिक कर्तव्य है। लेकिन आज जनवाद
का दायरा कम हो रहा है और जब भी जनता जन-विरोधी नीतियों के विरोध में शांतिपूर्ण
प्रदर्शन करने के लिए सड़को पर उतरती है तो उन पर लाठियाँ भाँजी जाती हैं। इसके
कुछ उदाहरण अभी हाल ही में दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, तथा बंगाल में दिखे, जहाँ
अपनी न्यायोचित माँगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे मजदूरों तथा छात्रों, महिलाओं
और बच्चों पर पुलिस ने सरकार के इशारे पर बर्बर रूप से लाठियाँ भाँजी गईं। इन तमाम
घटनाओं से स्पष्ट हो जाता हैं कि सरकार पूँजीवादी लोकतंत्र के अंदर जो बचा-खुचा
जनवादी स्पेस बाकी था उसे भी अब पूरी तरह से खत्म करने का मन बना चुकी हैं।
एक सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था उसी को कहा जा
सकता है जहाँ सुई से लेकर हवाई जहाज बनाने वाली श्रमशील जनता का राजकाज और प्रशासन
के पूरे ढांचे पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण हो और जहां मुनाफे के लिये उत्पादन के बजाये
आम जनता की आवश्यकताओं की पूर्ती के लिये उत्पादन होता हो। इसके अलावा, सरकार
अपनी मनमानी न कर सके इसके लिए जरुरी है कि समाज में नौजवानों, मजदूरों, तथा
आम नागरिकों के जनवादी संगठन मौजूद हों जो सरकार के हर जन-विरोधी कदम के खिलाफ़
जनता को लामबंद कर सके। क्या समाज का एक अंग होने के नाते हमारा यह कर्तव्य नहीं
बनता कि समाज में किसी भी इंसान पर अगर अन्याय हो रहा है, फिर
चाहे वह किसी धर्म, जाति, या क्षेत्र का हो तो उसके खिलाफ़ हम मिलकर आवाज
उठायें? यहाँ एक सवाल उठता है कि क्या मतदान को ही हम अपना
कर्तव्य पूरा करना मान लेते हैं, या मौजूदा व्यवस्था में यदि कुछ गलत हो रहा है
तो उसे बदलने के लिये भी आगे आने चाहिये?
जाड़े की ठण्ड और
वीरानगी के बिना
सम्भव नहीं हो सकती थी
वसन्त की दीप्ति और कुनकुनी गरमी।
दुर्भाग्यों ने मुझे फ़ौलाद बनाया है
और संयमित किया है,
और भी दृढ़ बना दिया है उन्होने
मेरे संकल्प को।
हो ची मिन्ह
The worst
illiterate is the political illiterate. He doesn't hear, doesn't speak, nor
participates in the political events. He doesn't know that the cost of life,
the price of the bean, of the fish, of the flour, of the rent, of the shoes and
of the medicine, all depend on political decisions. The political illiterate is
so stupid that he is proud and swells his chest saying that he hates politics. The
imbecile doesn't know that, from his political ignorance is born the
prostitute, the abandoned child, and the worst thieves of all: the bad
politician, corrupted and flunky of the national and multinational companies.
-Bretolt
Brecht
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके
भी अपराध