“यदि मतदान से कुछ बदला जा सकता, तो वे अब तक इसपर रोक लगा चुके होते!” - मार्क ट्वेन

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की
रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछले वर्ष हुए लोक सभा चुनावों में अधिकांश चुनावी
पार्टियों को मिलने वाला 90% चंदा कॉर्पोरेट जगत से आया था। यहाँ
पर ध्यान देने की कुछ गंभीर बातें हैं-
(१) देश के 1% से भी कम जनसंख्या जो कि ज्यादातर
कार्पोरेट जगत की मालिक है,
और जो कि खुद को गैर-राजनितिक बताती है, क्यों इतना चंदा इन राजनीतिक पार्टियों
को देती हैं? (वैसे सोचने वाली बात ये भी है, कि शराफत का मुखौटा पहने इन धनकुबेरों
के पास इतना धन एकत्र कैसे होता है, जबकि
दूसरी ओर यही लोग बुरी आर्थिक स्थितियों का हवाला दे-देकर अपने कर्मचारियों को या
तो नौकरी से निकाल देते हैं, या
फिर उनकी तनख्वाहों में कटौती करते हैं)
(२) कार्पोरेट और चुनावी पार्टियों की
जुगलबंदी मीडिया और प्रचार के माध्यमों से किसी एक पार्टी के लिए जनता के बीच आम
राय बनाने का काम करती है। अब जनता के वोटों, और
कॉर्पोरेट के नोटों की मदद से बनी हुई सरकार किसके लिए और क्यों काम करेगी, इतना तो आप समझ ही सकते हैं।

(४) इसके अलावा वर्तमान में सभी चुनावी
पार्टियों और अधिकांश मीडिया का खुद का वर्ग चरित्र भी यही तय करता है कि वो
पूंजीपतियों के लिए काम करें। जहाँ संसद में बैठने वाले आधे से ज्यादा सांसद
करोड़पति हों वहाँ चुनावी पार्टियों को तो आम जनता के रूप में वोटों के ढ़ेर ही
दिखाई देते हैं, जो कि चुनाव खत्म होने के साथ ही
नेताओं की नजरों से नीचे गिर जाती है।
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