साथियो,
आज़ादी
मिलने के 65 साल बाद आज भी देश की 77 फ़ीसदी आबादी 20 रुपया रोज़ाना से भी कम पर
गुज़ारा करती है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल के मसले पर सरकार ने भी अब मान
लिया है कि देश की 65 फ़ीसदी आबादी ग़़रीब है। आज कुल मज़दूरों में 93 फ़ीसदी ठेके
पर बहुत कम वेतन पर बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के काम कर रहे हैं। 1990 में शुरू
हुए ‘आर्थिक सुधारों' के
बाद पूरे देश में 150 से ज़्यादा श्रम क़ानूनों का कोई मतलब नहीं रह गया है। सरकारी
नौकरियां धीरे-धीरे खत्म करते हुये उन्हें
भी ठेके पर दिया जा रहा है! सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य आदि
को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया है। आम मेहनतकशों के बच्चे या तो सरकारी स्कूल
में सड़ा हुआ बासी भोजन खाकर मर रहे हैं या सरकारी अस्पताल की नकली दवाइयों से। 1997 से अब तक लगभग 1.5 लाख से ज़्यादा किसान ग़रीबी के
कारण आत्महत्या कर चुके हैं और यहाँ हर दिन 5,000 बच्चे कुपोषण या चिकित्सा के अभाव
में मर जाते हैं। ग्लोबल हंगर इण्डैक्स के आधार पर बनी 88 देशों की सूची में
भारत 73वें स्थान पर है। 2012 के मल्टीडायमेन्शनल पावर्टी इण्डैक्स के अनुसार
बिहार, छत्तिसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान,
उत्तरप्रदेश और पश्चिमबंगाल में 42 करोड़ लोग ग़रीबी के शिकार हैं। ऐसी
स्थिति में मेहनतकश जनता के शोषण पर खड़ी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प
खड़ा करने के बारे में भगतसिंह के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि तब
थे जब भारत ब्रिटेन का उपनिवेश था।
भगतसिंह
को ज़्यादातर लोग मात्र असेम्बली में बम फेंकने वाले एक जोशीले क्रान्तिकारी
नौजवान के रूप में तो जानते हैं, लेकिन एक प्रखर विचारक और स्वतंत्र चिंतक के रूप में लोग उन्हें क़तई नहीं
जानते हैं और जान भी कैसे सकते हैं जबकि आज़ादी के बाद तमाम पूंजीवादी सरकारों औन
चुनावी पार्टीयों ने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की कि भगतसिंह के इंकलाबी विचार
लोगों तक ना पहुंचने पाये। ज़्यादातर लोग आज भी उनके विचारों और सिद्धान्तों से
बिलकुल अनजान हैं। भगतसिंह और उनके साथी कैसी आज़ादी की बात कर रहे थे और कैसा
समाज बनाना चाहते थे उसकी एक झलक अदालत में दिये गये उनके इस बयान में भी देखने को
मिलती है : "क्रांति से हमारा अभिप्राय है — अन्याय पर आधारित मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन
… समाज का मुख्य अंग होते हुये भी आज मज़दूरों को उनके प्राथमिक
अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति
हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार
सहित दाने-दाने के लिये मुहताज हैं। दुनियाभर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैया करने
वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढकनेभर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर
महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं
गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के
जोंक शोषक पूँजीपति ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिये लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं।''
"यह भयानक असमानता और ज़बरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी
उथल-पुथल की ओर लिये जा रहा है। जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र
द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जिसे साम्राज्यवाद
कहते हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असम्भव है...।" संक्षेप में कहें तो भगतसिंह ने एक ऐसे समाजवादी समाज के निर्माण का सपना
देखा था जहाँ उत्पादन और राजकाज के पूरे ढांचे पर मेहनतकश जनता काबिज़ हो और
फैसला लेने की ताक़त उसी के हाथ में हो।
जनता को
उसकी बदहाली के बारे में बेख़बर रखने के लिये धर्म और जाति का भ्रम फैलाने वाली साम्प्रदायिक
ताक़तों और शोषक मालिकों के हितों की हिफ़ाजत करने वाली राजनीति के बारे में
भगतसिंह ने सीधे कहा था, "लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए
वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत
बड़े बाधक हैं। जो चीज़ आज़ाद विचारों को बरदाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना
चाहिए। इस काम के लिये सभी समुदायों के क्रन्तिकारी उत्साह वाले नौजवानों की आवश्यकता
है। मैं इस जगत को मिथ्या नहीं मनाता। मेरे लिए इस धरती को छोड़ कर न कोई दूसरी
दुनिया है न स्वर्ग। आज थोड़े-से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को
नरक बना डाला है। शोषकों तथा दूसरों को गु़लाम रखने वालों को समाप्त कर हमें इस
पवित्र भूमि पर फिर से स्वर्ग की स्थापना करनी पड़ेगी।"
अन्त
में भगत सिंह के शब्दों में, "जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे
में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और
निष्क्रियता को तोड़ने के लिये एक क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की ज़रूरत होती
है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है।... लोगों
को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को ग़लत रास्ते पर ले जाने में
सफ़ल हो जाती हैं। इससे इन्सान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है।
इस परिस्थिति को बदलने के लिये यह ज़रूरी है कि क्रान्ति की स्पिरिट ताज़ा की जाये
ताकि इन्सानियत की रूह में हरकत पैदा हो।”
जागरूक
नागरिक मंच, गुड़गाँव
सम्पर्क 9911583733, 9910146445