आज़ादी मिलने के बाद शायर अली सरदार ज़ाफ़री ने ये
पंक्तियां लिखी थी और आज भी हमारे समाज पर ये हूबहू लागू होती हैं। मनमोहन सिंह के
चमकते ‘भारत निर्माण‘ और मोदी के उजले ‘वाईब्रेंट गुजरात‘ के पीछे छुपी नंगी सच्चाई यह है कि आज देश की 77 फ़ीसदी आबादी 20 रुपया रोज़ से कम पर गुज़ारा करती है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल के मसले पर
अब सरकार ने भी स्वीकार कर ही लिया कि
आज़ादी के 65 साल बाद भी देश की 65
फ़ीसदी आबादी ग़रीब है! 2004-5 से 2009-10 के बीच कुल रोज़ग़ार निर्माण
1 लाख था पर इस दौरान हर साल लगभग 12 लाख लोग रोज़ग़ार पाने के लिये लम्बी लाईन में जा
खड़े हुए। आज कुल मज़दूरों में 93 फ़ीसदी ठेके पर बहुत कम वेतन पर बिना किसी सामाजिक
सुरक्षा के काम कर रहे हैं। 1990 में शुरू हुए ‘आर्थिक सुधारों‘ के बाद पूरे देश में 150 से ज़्यादा श्रम क़ानूनों की धज्ज्यिां उड़ाते हुये लगातार अंधाधुंध ठेकाकरण, निजीकरण, छंटनी, तालाबंदी हो रही है। सरकारी नौकरियां
धीरे-धीरे खत्म करते हुये उन्हें भी ठेके पर दिया जा रहा है! सरकार ने
शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया है। आम मेहतनकशों के बच्चे या
तो सरकारी स्कूल में सड़ा हुआ बासी भोजन खाकर मर रहे हैं या सरकारी अस्पताल की
नकली दवाइयों से। भारत के टैक्सचोर अमीर दुनिया में सबसे कम टैक्स देते हैं बावजूद
इसके कि 1990 में भारत के अरबपतियों की दौलत जीडीपी के 4 फ़ीसदी के आसपास से बढ़कर 2009 में जीडीपी के 23 फ़ीसदी के आसपास पहुंच गयी! उधर मोदी के गुजरात में 31 फ़ीसदी लोग ग़रीबी की रेखा के नीचे हैं, 2004-05 और 2009-10 के एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक रोज़ग़ार निर्माण की दर लगभग लगभग शून्य है, और 50 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं! क्या ऐसी ही असमानता और ग़ैर-बराबरी से भरी
आधी-अधूरी आज़ादी का सपना भगत सिंह और आज़ाद जैसे लोगों ने देखा था? आज एक बार फि़र ज़रूरत है कि उन शहीदों के सपनों को याद करते हुये उनसे प्रेरणा लेकर
नये संकल्प के साथ एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए संघर्ष की तैयारी की जाये!
