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Tuesday, February 3, 2015

सरकारें - जनता की या पूंजीपतियों की?


यदि मतदान से कुछ बदला जा सकता, तो वे अब तक इसपर रोक लगा चुके होते!” - मार्क ट्वेन
अगर आपको पूरा विश्वास है कि आपके वोटों से चुनी गयी वर्तमान सरकार (या फिर पुरानी सरकारें) जनता की सेवा और भला करने के लिए काम करती हैं, तो जरा फिर से सोचिये, क्या वाकई?
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछले वर्ष हुए लोक सभा चुनावों में अधिकांश चुनावी पार्टियों को मिलने वाला 90% चंदा कॉर्पोरेट जगत से आया था। यहाँ पर ध्यान देने की कुछ गंभीर बातें हैं-
(१) देश के 1% से भी कम जनसंख्या जो कि ज्यादातर कार्पोरेट जगत की मालिक है, और जो कि खुद को गैर-राजनितिक बताती है, क्यों इतना चंदा इन राजनीतिक पार्टियों को देती हैं? (वैसे सोचने वाली बात ये भी है, कि शराफत का मुखौटा पहने इन धनकुबेरों के पास इतना धन एकत्र कैसे होता है, जबकि दूसरी ओर यही लोग बुरी आर्थिक स्थितियों का हवाला दे-देकर अपने कर्मचारियों को या तो नौकरी से निकाल देते हैं, या फिर उनकी तनख्वाहों में कटौती करते हैं)
(२) कार्पोरेट और चुनावी पार्टियों की जुगलबंदी मीडिया और प्रचार के माध्यमों से किसी एक पार्टी के लिए जनता के बीच आम राय बनाने का काम करती है। अब जनता के वोटों, और कॉर्पोरेट के नोटों की मदद से बनी हुई सरकार किसके लिए और क्यों काम करेगी, इतना तो आप समझ ही सकते हैं।
(३) वैसे जिस लोकतान्त्रिक चुनावों का देश में इतना ढिंढोरा पीटा जाता है, तो यह पता होना भी आवश्यक है कि इतने ज्यादा मीडिया प्रचार, और पिछले साल संपन्न हुए अब तक के सबसे बड़े चुनावों के बावजूद इसी कथित लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार के पास मताधिकार का प्रयोग करने योग्य जनता में से केवल 31% का मत है, जो कि कुल आबादी का एक छोटा सा ही अंश है।
(४) इसके अलावा वर्तमान में सभी चुनावी पार्टियों और अधिकांश मीडिया का खुद का वर्ग चरित्र भी यही तय करता है कि वो पूंजीपतियों के लिए काम करें। जहाँ संसद में बैठने वाले आधे से ज्यादा सांसद करोड़पति हों वहाँ चुनावी पार्टियों को तो आम जनता के रूप में वोटों के ढ़ेर ही दिखाई देते हैं, जो कि चुनाव खत्म होने के साथ ही नेताओं की नजरों से नीचे गिर जाती है।
तो क्या इसे ही एक ’’जनता द्वारा चुनी हुई, जनता के लिए’’ वाली सरकार मान लिया जाये? हमारी नज़र में तो जनता का मतलब देश की लगभग 90% मेहनतकश आबादी है, और पूँजीपतियों के पैसे से चुनी गई सरकार आम मेहनतकश जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, और न ही वह जनता के लिए काम करेगी। ऐसी सरकार तो केवल पूंजीपतियों की चाकरी कर उनकी मुनाफे की हवस मिटाने का ही प्रयास कर सकती है, और जनता के उबलते क्रोध को रोकने के लिए दिखावी विकास, जाति-धर्म के नाम पर जनता को लड़ाने, और जनता के किसी भी जायज प्रतिरोध को दबाने का ही काम कर सकती है।
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"Control of thought is more important for governments that are free and popular than for despotic and military states. Citizens of the democratic societies should undertake a course of intellectual self defense to protect themselves from manipulation and control, and to lay the basis for meaningful democracy."
-Noam Chomsky

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