कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Friday, July 25, 2014




जिन अच्छे दिनोंका सपना दिखाकर  भाजपा सत्ता में आई थी अब उन अच्छे दिनोंकी असलियत बिल्कुल खुलकर लोगों के सामने आ रही  है। अपने पहले ही बजट में देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम पर रेलवे, रक्षा, बीमा तथा अन्य सरकारी संस्थाओं के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी और निजी निवेश को खुलकर बढ़ावा दिया गया है। इसी के साथ-साथ जनता के खून-पसीने की मेहनत से खड़े किये गए सरकारी संस्थानों को भी निजी हाथों में सौंपने की भी तैयारी कर ली है। इसके अलावा बड़े-बड़े औद्योगिक घरानाें को टैक्स पर मिलने वाली अरबों रुपए की छूट को बरक़रार रखा हैं। जिसका अर्थ है पिछली सरकार द्वारा शुरू की गई नीतियों के अनुरूप ही देशी-विदेशी कम्पनियों की लूट के लिये देश को और अधिक खुले चरागाह में तब्दील कर देना।

वहीं दूसरी तरफ़ जनता  को ‘‘देशहित‘‘ के लिए कड़वे घूंट पीने को तैयार रहने को कहा है, जिसका सीधा मतलब है राजकोषीय घाटा कम करने के नाम पर स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़ग़ार आदि के नाम पर जो भी जनकल्याणकारी योजनाएँ चल रही हैं उनमें भारी कटौती कर उन्हें पूरी तरह से बाज़ार की ताकत़ो के हवाले कर दिया जाएगा। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मोदी आने वाले अच्छे दिनों की बात करते नहीं थकते थे, परंतु सत्ता में आते ही जनता से कहा जा रहे हैं कि उसे ‘‘अच्छे दिनों" के लिए अभी और इंतज़ार करना पड़ेगा। परंतु प्रश्न तो यही हैं कि जिस जनता ने उन्हें भारी बहुमत से जिताकर संसद में भेजा है उसके पक्ष में नीतियाँ बनाने के लिए उन्हें समय क्यों चाहिये? जबकि बड़े-बड़े उद्योगपतियों के हितों में नीतियाँ बनाने में उन्हें एक महीने से भी कम समय लगा!


Tuesday, July 1, 2014




पिछले कुछ वर्षों में बहुचर्चित निर्भया काण्ड और बदायूं काण्ड को छोड़ दें तो इन मसलों के अलावा भी ऐसी बहुत सी नारी-विरोधी घृणित घटनायें हुईं हैं जिन पर  मीडिया ने चुप्पी साधे रखी। यत्र नार्यस्तु पूज्यतेकी डींग मारने वाले हमारे देश में भगाणा में दलित बच्चियों के साथ सवर्णदबंगों द्वारा किये गये बलात्कार का मसला हो या आदिवासी और ग़रीब इलाकों में बच्चियों एवं महिलाओं की तस्करी के मसले हों, ये सभी मसले देश के चिन्ताशीलमीडिया में वैसी जगह नहीं बना पाते जैसे कि मसलन मशहूर हस्तीयों के निजी जीवन के फूहड़ किस्से। ऐसे मसलों पर मीडिया में होने वाली चर्चासमस्या की जड़ तक पहुंचने के बजाये मात्र कुछ सतही लक्षणों पर केंद्रित होकर एक तमाशे के रूप में समाप्त हो जाती है जिसमें अंत में मात्र पुलिस को निकम्मा कहकर या उल्टे महिलाओं के ही पहनावे एवं आधुनिकता और खुलेपन को ही जिम्मेदार ठहराकर या चुनावी मदारी पार्टीयों द्वारा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर चर्चा का अंत हो जाता है!खाते-पीते मध्यवर्ग का एक हिस्सा ऐसी घटनाओं के विरोध में कुछ दिनों का धरना एवं जंतर-मंतर पर मोमबत्ती प्रदर्शन की रस्म निभाकर और घटना की भर्त्सना मात्र करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है! महिलाओं की समस्या पर अपने घड़ियाली आंसू बहाकर जनता में अपनी ’’जनपक्षधर मीडिया’’ की छवि को चमकाकर अपनी टीआरपी बढ़ाने के बाद फिर से वही फूहड़ अश्लील विज्ञापन-फिल्मों-गानों का दौर शुरु हो जाता हैजो महिलाओं को एक बिकाउ माल के रूप में पेश करके आम जनता में दुबारा उन्ही स्त्री-विरोधी मूल्यों को पैठाता है! क्या ऐसी घटनाओं के पीछे महिलाओं की आर्थिक-सामाजिक स्थिति, जातीय उत्पीड़न के आर्थिक पहलू, तथा पूँजीवादी खाओ-पियो मौज करोकी वाहियात कुसंस्कृति पर विचार नहीं किया जाना चाहिये जो कि ऐसी समस्याओं का मूल कारण हैं।


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