कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Sunday, May 18, 2014

एक बार फिर पूरी दुनिया में उथल-पुथल की आहटें हो रही हैं,



एक बार फिर पूरी दुनिया में उथल-पुथल की आहटें हो रही हैं, कुछ मुठ्ठीभर परजीवियों द्वारा व्यापक आबादी पर थोपी ग़ैर-बराबरी, ग़रीबी, बेरोजगारी के खिलाफ लोफिर सड़कों पर आ रहे हैं और शोषण, अत्याचार तथा अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलन्द कर रहे हैं। चंद पूँजीवादी घरानों के पैसों से चलने वाले ज्यादातर मीडिया के स्क्रीनों से इस उथल-पथल की तस्वीरें भले ही नदारद हों लेकिन ज़मीनी स्तर पर क बार फिर बदलाव की सुबुगाहट सुनाई दे रही है। सम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के दौर में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के तहत जारी खुली पूँजीवादी लूट और मुनाफ़ाख़ोरी तथा अमानवीयता से तगहाल जनता सड़कों पर अपना रोष व्यक्त कर रही है। भारत की कई फै़क्ट्रियों के मज़दूर हड़ताल और अन्य रूपों में शोषण और उत्पीड़न का विरोध कर रहे हैं, चीन के हज़ारों मज़दूर हड़ताल पर हैं, मिस्र में सैन्य तख़्तापलट के बाद लागू तानाशाही में हो रहे खुले शोषण के विरुद्ध वहाँ के हज़ारों लोप्रदर्शन कर हैं, वेनाजुला में अमरीकी-समर्थक विपक्षी दल ्वारा जनता के बीच हिसा भड़काने की कोशिश के विरोध में जनता सड़कों पर है, साथ ही कई और देशों में मेहनतकश जनता सड़कों पर प्रदर्शन और विरोध कर रही है।

इन ख़बरों को देख-सुन कर कोई भी जीवित हृदय इंसान वर्तमान परिस्थितियों पर सोचे बिना नहीं रह सकता। इतिहास को उठाकर देखें तो अन्याय, शोषण और ग़ैर-बराबरी पर आधारित व्यवस्था के विरुद्ध संर्षों की शुरूवात चाहे किसी भी देश में हुई हो और किन्हीं लोगों ने संर्ष का आरम्भ किया हो, लेकिन उसका असर पूरी दुनिया के सभी देशों में लोगों के जीवन पर पड़ा। चाहे फ्रांस की जनवादी क्रान्ति ने पहली बार समानता, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व का नारा बुलन्द किया हो, या अमेरिका में शिकागो के मज़दूरों ने पहली बार मज़दूरों ने काम के घण्टे 8 निर्धारित करने की माँग की हो, या रूस में पहली बार सरकार का पूरा नियन्त्रण क्रान्ति के माध्यम से मज़दूरों ने अपने हाथों में ले लिया हो, या सोवियत यूनीयन में पहली बार हर रूप में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार मिले हों, इन सभी संर्षों और विचारों का असर पूरी दुनिया के हर देश में और हर व्यक्ति के जीवन पर पड़ा।

आज की परिस्थितियों में यह सोचने का विषय है कि क्यों कड़ी से कड़ी मेहनत करने के बावजूद ज़्यादातर लोगों को जीने के लिये अथक संर्ष करना पड़ रहा है, और काम करने के लिये तैयार और काबिल करोड़ों नौजवानों को बिना काम के सड़कों पर धकेल दिया या है। जबकि कुछ मुठ्ठीभर लो, जो शेयर बाजार के जुआरी, दलाल, सट्टेबाज़ और ठेकेदार हैं, वे बिना किसी काम के सारी सुविधाँए हड़प रहे हैं। जनता की मेहनत की लूट का क्या हो रहा है इसका अन्दाज बीबीसी की क रिपोर्ट से लगा सकते हैं कि आज दुनिया के 85 अमीर रानों की सम्पत्ति दुनिया की सबसे ग़रीब आधी आबादी (ल 350 करोड़) की कुल सम्पत्ति से अधिक है।

इस खुले शोषण और मुनाफाखोरी पर खड़ी व्यवस्था के आपराधिक चरित्र को ध्यान में रखते हुए हमें इतिहास का यह सबक भी ध्यान में रखना होगा कि असंतोष के दौर में यदि जनता की कोई क्रान्तिकारी ताकत, जो क प्रगतिशील विकल्प प्रस्तुत करती हो, मौजूद न हो तो इस अशंतोष का फायदा उठाने के लिये पूँजीवाद द्वारा खड़ी की ईं प्रतिक्रियावादी ताकतें हरपल तैयार रहती हैं। से में आज विचारों की सान पर क्रान्ति की तलवार को तेज करने’ (त सिंह के शब्दों में) और मीडिया तथा अखबारों द्वारा हाँकी जा रही अन्धी भेंड़ चाल में न चलकर क जनपक्षधर विकल्प तलाशने और खड़ा करने का समय है, जिससे कि समाज के हर व्यक्ति की जीवन परिस्थितियों मे वास्तव में सकारात्मक आमूलगामी बदलाव हो सकें।  

                              

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