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Saturday, December 21, 2013

जनता क्या चाहती है: व्यवस्था में परिर्वतन या सत्ता में लोगों का परिर्वतन??

सामने आ रहा है व्यवस्था के प्रति जनता का गुस्सा।
हाल के चुनावी नतीज़ों ने यह साबित कर दिया है कि लोगों में वर्तमान व्यवस्था के प्रति अविश्वास और गुस्सा व्याप्त है, और वह व्यवस्था में बदलाव चाहती है। व्यवस्था के प्रति लोगों के इस गुस्से को इस तरह तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे कि लोग कुछ नेताओं या राजनीतिक पार्टियों से क्रोधित हैं। मुनाफ़ा केन्द्रित उत्पादन प्रणाली पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में जब लगातार बढ़ रही महँगार्इ, बेरोज़ग़ारी और भ्रष्टाचार के कारण जनता के सब्र का बाँध टूटने लगता है और उसका गुस्सा सड़कों का रुख अखि़तयार करना शुरु कर देता है, तो व्यवस्था को नियंत्रित करने वाले वर्ग जनता के सामने एक नया चेहरा खड़ा कर देते हैं और एक ऐसा भ्रम पैदा करने की कोशिश की जाती है कि सभी समस्याओं का मुख्य कारण मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था नहीं बल्कि उसे मैनेज करने वाले कुछ भ्रष्ट नेता और नौकरशाह हैं। लेकिन जनता वास्तव में क्या बदलाव चाहती है, और जो विकल्प उसके सामने लाये जा रहे हैं वे क्या बदलाव करेंगे इस सवाल को पीछे धकेल दिया जाता है। पूँजी से संचालित पूरा तंत्र कर्इ बार लागों को भ्रमित कर व्यवस्था के प्रति लोगों के गुस्से को कुछ लोगों के प्रति गुस्से में रूपान्तरित करने में सफल हो जाता है।
आज हमें यह सोचना होगा कि क्या सिर्फ भ्रष्टाचार को समाप्त कर या सिर्फ राजनीतिक सुधारों के लिये कुछ और कानून बना देने से देश की लगभग 80 प्रतिशत आम जनता के हालात बदल जाएँगे? क्या बेरोज़ग़ारी और रोज़ग़ार की अनिश्चितता का जो दैत्य हर व्यक्ति के सामने सदैव खड़ा रहता है उससे उन्हें मुक्ति मिल जाएगी? और, क्या देश के विकास का मतलब ऊँची-ऊँची इमारतें, ऊँची जीडीपी और बड़े-बड़े शौपिंग काम्प्लेक्स ही हैं?
आज ज़रूरत सिर्फ वोट डालने और भ्रष्टाचार का विरोध करने की ही नहीं बलिक संगठित होकर व्यवस्था में आमूलगामी बदलाव की माँग करने की भी है। विकास के भ्रम को तोड़ने के लिये हमें हर दायरे में विस्तार से सोचना होगा कि क्या कोर्इ चुनावी पार्टी देश की व्यापक जनता की परिस्थितियों में बदलाव का कोर्इ विकल्प प्रस्तुत कर रही है या नहीं। हमारा मानना है कि जब तक इंसान की श्रम शक्ति किसी दूसरे के मुनाफे़ के लिये बाज़ार में बिकने वाला माल बनी रहेगी तब तक जनता की मुक्ति सम्भव नहीं है।



विकास (?) पर सोचने के लिए कुछ सवाल!

विकास के दावे कर लोगों को भ्रमित करने वाले नेता किसे विकास कहते हैं,जबकि

देश की लगभग 43 करोड़ आबादी ठेके पर कामों में लगी है जिसका कोर्इ निशिचत रोजगार नहीं है? देश की लगभग 30 करोड़ आबादी बेरोजगार है? समाज के 77 प्रतिशत लोगों की आमदनी 20 रुपये प्रति दिन से भी कम है, और देश के 100 अमीरों तथा गरीबों की आमदनी का अन्तर 17 लाख गुना है? समाज की लाखों महिलाओं के प्रति हर रोज हिंसा होती है? शिक्षा का खुले आम बाजारीकरण किया जा रहा है? चिकित्सा की सुविधा न मिलने से आज भी हर दिन 9000 बच्चे मर जाते हैं, और अनेक लोग हर साल चिकित्सा के अभाव में मलेरिया, हैज़ा जैसी आम बीमारियों से मर जाते हैं? बाजार विलासिता के सामानों से पटा हुआ है और सारा उत्पादन मुनाफे़ पर केन्द्रित है, जिसमें समाज की व्यापक जनता की आवश्यकताओं का कोर्इ स्थान नहीं है?
आज हर सुविधा, और हर साधन समाज के कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों तक ही सीमित हैं। यह परिसिथतियाँ एक राजनीतिक पार्टी की जगह दूसरी राजनीतिक पार्टी और नये नेताओं को सत्ता सौंप देने भर से हल नहीं हो सकतीं। आने वाले समय में असमानता पर आधारित इस व्यवस्था को बदलने के लिये जरूरी है कि व्यापक जन पहलकदमी को जाग्रत किया जाए।





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