कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Sunday, June 16, 2013

चुनावी रैलियों और नेताओं की जुमलेबाज़ी के दौर में यह एक क्रान्तिकारी विकल्प की तलाश का समय है !!

आज-कल चुनावी रैलियों का दौर शुरू हो चुका है और अनेक जनप्रतिनिधिअपने-अपने विलासिता के महलों से निकल कर कड़ी पुलिस सुरक्षा के बीच जनता से रूबरू होने के लिये सामने आ रहे हैं। पूरे देश में रैलियाँ हो रही हैं। करोंड़ों रुपया खर्च करके टीवी चैनलों पर बहसों और विज्ञापनों के ज़रिये कांग्रेस, बीजेपी और संसदीय वामपंथियों सहित अनेक चुनावी पार्टियाँ जनता को रिझाने की कोशिश में लगी हैं। हर पार्टी यह सिद्ध करने की कोशिश कर रही है कि जनता को उसके दुखों से मुक्ति दिलानें का वही एकमात्र विकल्प है! लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि इन पार्टियों के चुनावी प्रचार में जनता की समस्याओं को सिर्फ़ गिनाया जाता है, और कुछ कल्याणकारी योजनाओं (जैसे सस्ते दामों में अनाज बाँटने) का दिलासा दिया जाता है, परन्तु आम मेहनतकश ग़रीब जनता के जीवन से जुड़ी मूलभूत माँगों को कोई स्थान नही दिया जाता। कुछ पार्टियाँ आतंकवाद के विरुद्ध युद्धया मन्दिर-मस्जिद के निर्माणके नाम पर जनता से वोट माँगती हैं तो कुछ जातीय मुक्ति के लियेया तेज आर्थिक विकास दरजैसी माँगों को पूरा करने के लिए ख़ुद को जनता के सामने मसीहा के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं। 
लेकिन इस चुनावी जुमलेबाजी की सच्चाई यह है कि आज बेरोज़ग़ारी के कारण देश के करोड़ों नौजवानों के सामने भविष्य का कोई विकल्प नहीं है, देश के लाखों बच्चे हर साल कुपोषण या चिकित्सा के अभाव में मर जाते हैं, खुले ठेकाकरण के चलते करोड़ों मज़दूर अमानवीय स्थितियों में 12 से 16 घण्टे काम करने के लिये मजबूर हैं और हज़ारों किसान हर साल ग़रीबी के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। 2007 की एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारत की 77 प्रतिशत (84 करोड़) आबादी प्रति दिन 20 रुपये से कम पर गुज़ारा करती है। दूसरी ओर विकासशीलभारत ने ग़रीबों और अमीरों के बीच असमानता के मामले में पूरी दुनिया को पीछे छोड़ दिया है । आज करोड़ो मज़दूरों किसानों और नौजवानों को आजीविका के लिये अनिश्चित संघर्ष में धकेल दिया गया है, जिनकी मेहनत पर कुछ मुट्ठीभर लोग विलासिता के समुद्र में लोट लगा रहे हैं।
 इस सब के बीच संसदीय सरकार चुनने की प्रक्रिया की विडम्बना यह है कि यह अपने आप में गैर-जनतान्त्रिक है। वास्तव में जनता के एक छोटे से हिस्से का समर्थन पाकर ही पार्टियाँ बहुमत हासिल कर सरकार बना लेती हैं, जिसे जनता की सरकार कहा जाता है। जैसे 2009 लोकसभा चुनाव में सत्ता में आई कांग्रेस को कुल 28.6 प्रतिशत वोट ही मिले थे, और बाकी 72.4 प्रतिशत जनता ने उसका समर्थन नहीं किया था। यही राज्य सरकारों के चुनाव में भी होता है। इसके साथ नेताओं की सम्पत्ति और उनके द्वारा खर्च किये जाने वाले धन और देशी-विदेशी उद्योगपतियों द्वारा पार्टियों को दिये जाने वाले करोड़ों के चंदों को देख कर यह ठोस पुष्टि हो जाती है कि वर्तमान पूँजीवादी जनतन्त्र जनता का नहीं, बल्कि पूँजीपतियों तथा पैसेवालों का पैसा-तन्त्र है।
वर्तमान संसद में ज़्यादातर करोड़पति, उद्योगपति, बिल्डर या शेयर-ब्रोकर जैसी पृष्ठभूमि के नेता हैं। यही कारण है कि सभी पार्टियाँ नीतियाँ बनाकर देशी विदेशी पूँजी को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा निचोड़ने के लिये खुली छूट देती हैं, और वर्तमान आर्थिक ढाँचे को बरकरार रखने के लिये उसे मैनेज करने की अपनी भूमिका अदा करती हैं। इस पूरे चुनावी तमाशे के बीच जनता का तो कुछ भला नहीं होता, लेकिन मीडिया, अख़बार और चुनावी प्रचार के माध्यम से शासक वर्ग लोगों के दिमाग़ में जनता की ताक़तका एक भ्रम ज़रूर पैदा कर देता है। सच यह है कि हर सरकार, चाहे वह किसी भी पार्टी की हो, देशी-विदेशी बैंकरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों और ठेकेदारों के हितों के लिये काम करती है। पूँजीवादी जनतंत्र का यह सच अब किसी से छुपा नहीं है कि जनता की, जनता द्वारा, जनता के लियेसरकार का जुमला राजनीतिक पार्टियों द्वारा वोटों के लिये जनता को फंसाने वाले चारे से अधिक कुछ नहीं है। इसके बावजूद अन्ना हज़ारे और केजरीवाल जैसे लोग पूँजीवादी जनतन्त्र के इस भ्रम को और मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं कि यदि जनता ईमानदार लोगोंको संसद में पहुँचा दे तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
संसद और सरकारों की असलियत अब किसी से छुपी नहीं है। ऐसे में आज हमें एक ठोस क्रान्तिकारी विकल्प प्रस्तुत करना होगा और समाज के बुनियादी ढाँचे में आमूलगामी बदलाव के लिये जनता की सक्रिय भागीदारी को लामबन्द करना होगा। पूरे ढांचे को बदले बिना एक पार्टी की जगह दूसरी पार्टी को संसद में पहुँचाने की माँग करने से आम जनता के जीवन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।



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