कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Sunday, March 31, 2013

शहीद दिवस (23 मार्च) पर नौजवानों और युवाओं के नाम!

भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों द्वारा भारत की आज़ादी के संघर्ष के दौरान इस्तेमाल किये गये यह दो शब्द आज भी हर इंसाफ़ पसन्द इंसान की आत्मा को झकझोर कर रख देते हैं। इन शहीदों के यह शब्द हमें सोचने के लिये मजबूर करते हैं कि आज आज़ादी के 66 साल बाद भी हर तरफ़ मौजूद बेकारी,ग़ैर-बराबरी और ग़रीबी का कारण क्या है? और हमारे सामने एक सवाल खड़ा हो जाता है कि इन शहीदों के सपने क्या थे और वे समाज और आज़ादी के बारे में क्या सोचते थे? भगतसिंह को ज्यादातर लोग असेम्बली में बम फेंकने वाले एक जोश भरे क्रान्तिकारी नौजवान के रूप में तो जानते हैं, लेकिन एक विचारक के रूप में लोग उन्हें नहीं जानते। आज भी ज़्यादातर लोग उनके विचार और उनके सिद्धान्तों से अपरिचित हैं। इसका एक मुख्य कारण यह भी है कि यहाँ की तमाम चुनावी पार्टियों ने भगत सिंह के विचारों को जनता तक कभी पहुँचने ही नही दिया क्योंकि वे इस बात से डरते थे और आज भी ड़रते है कि अगर भगत सिंह के क्रान्तिकारी विचार जनता तक पहुँच गए तो जिस जनता को धोखा देकर वह हुकू़मत कर रहे हैं वही जनता सच्चाई को समझकर उन्हे उखाड़ फेंकेगी। असेम्बली में बम फेंकने के बाद के दिनों में जेल में रहते हुये भगतसिंह और उनके साथियों ने अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया। इस दौरान भगतसिंह ने कई महत्वपूर्ण लेख लिखे जो 1986 में पहली बार प्रकाशित किये गये। इन लेखों में भगतसिंह के क्रान्ति और समाज के निर्माण के बारे में उनके सारे मत बिल्कुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। जेल में रहकर अध्ययन करते हुये भगत सिंह वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों के करीब पहुंच चुके थे और अपने अन्तिम दिनों में रूसी क्रान्तिकारी नेता लेनिन का जीवन परिचय पढ़ रहे थे। भगतसिंह और उनके साथी कैसी आज़ादी की बात कर रहे थे और कैसा समाज चाहते थे उसकी एक झलक अदालत में दिये गये उनके इस बयान में भी देखने को मिलती है कि "क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।" व्यवस्था में जिस आमूल परिवर्तन की बात भगतसिंह कर रहे थे उसका अर्थ था एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जहाँ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण को असम्भव बना दिया जाये। वह एक ऐसे शोषणविहीन समाज के निर्माण का सपना देख रहे थे जहाँ मेहनतकश जनता ही राजकाज से संबंधित फैसले ले व जहां पूँजी द्वारा श्रम के शोषण को असम्भव बना दिया जाये। आज 66 साल के पूँजीवादी ढंग के विकास के बाद लूट, लालच, और मुनाफे़ पर टिके जिस समाज में हम रह रहे हैं उसमें भगतसिंह की बातें और भी प्रासंगिक हो गयी हैं! आज जहाँ एक ओर देश की अर्थव्यवस्था लगातार उछाल पर है वहीं दूसरी ओर देश की 80 फ़ीसदी मेहनत-मज़दूरी करने वाली आबादी बेरोजग़ारी और शोषण की चक्की में पिसते हुये हवसख़ोर मालिकों की तिजोरी भरते हुये  नर्क में जीने के लिये मजबूर है और देश की 77 फ़ीसदी आबादी रोज़ाना 20 रुपयों से भी कम आमदनी पर जी रही है। वर्तमान पूँजीवादी सत्ता द्वारा लगातार ठेकाकरण को बढ़ावा देने और श्रम क़ानूनों को तिलांजलि देने के बाद आज पूरे देश की 93 फ़ीसदी मज़दूर आबादी बिना किसी श्रम क़ानून के ठेके पर काम कर रही है। ऐसी स्थिति में श्रम की लूट पर खड़ी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती देने के लिये भगतसिंह के विचार आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि तब थे जब कि भारत ब्रिटेन का गुलाम था। भगत सिंह ने कहा भी था कि जो सरकार लोगों को रोजी-रोटी ना दे सके, उसे उखाड़ कर फेंक देना नौजवानों का दायित्व है'! भगतसिंह का नाम आज भी भारत के हर कोने में जनता पर होने वाले ज़ुल्म, अन्याय और शोषण के विरुद्ध जनता की आवाज़ का उसी स्तर पर प्रतिनिधित्व करता है जितना कि तब करता था। यही कारण है कि आज कई दशाब्दियाँ बीत जाने के बाद भी वर्तमान सत्ता उनके विचारों को जनता की नज़रों से छुपाकर रखने के पूरे प्रयास करती है। इसलिए साथियों आज एक नौजवान होने के नाते हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव के शहादत दिवस को सिर्फ़ एक रस्म अदा करने के लिए मनाये जाने वाले दिवस के रुप में मनाने के बजाये हम संकल्प लें कि हम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के क्रान्तिकारी विचारों को हर नौजवान, मजदूरों, मेहनतकश  किसानो  तक पहुचायेंगे ताकि हमारी आने वाली पीढियाँ एक ऐसे समाज में साँस ले पाए जहाँ मेहनतकश  जनता ही उत्पादन और राजकाज के ढांचे की स्वामी हो,जहां पूंजी के द्वारा श्रम का और मानव के द्वारा मानव का शोषण असम्भव हो जाये!


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