कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Sunday, August 26, 2012

हर प्रोफेशनल को अपने काम के बारे में सोचना होगा . . .


आज कल सभी लोगों की ज़रूरत है कि वे कोई काम करें जिससे जीने के लिए ज़रूरी सुविधाएँ उन्हें मिल सकें। और पूरे समाज के लिए ज़रूरी है कि समाज का हर व्यक्ति समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ काम करे। लेकिन आज की व्यवस्था में पहली बात तो हर व्यक्ति पर लागू होती है, लेकिन दूसरी बात का कोई ज़्यादा व्यवहारिक महत्व नहीं है। क्योंकि समाज का एक हिस्सा किसी भी तरह सिर्फ़ अपने लिए ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा हासिल करने के लिए एक दूसरे से छीना-झपटी में लगा हुआ है, और दूसरा हिस्सा एक मूकदर्शक की तरह असहाय देख रहा है। ऐसे में कई लोग युवाओं को उनके प्रोफेशन के प्रति उत्साहित करने के लिए सत्यमेव जयते जैसे टीवी प्रोग्राम या किसी ‘‘सफल‘‘ व्यक्ति, जैसे स्टीव जोब्स या बिल गेट्स की ‘‘समाज सेवा‘‘ के उदाहरण देकर यह सिद्ध करने की कोशिश करते है कि सभी को अपना-अपना काम पूरी ‘‘ईमानदारी‘‘ के साथ ऐसे ही करना चाहिए! यह बात सही है कि समाज के हर व्यक्ति में अपने पेशे के साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों की चेतना और उनमें पूरी हिस्सेदारी होनी चाहिये। लेकिन किसी व्यक्ति या किसी ग्रुप के प्रोफेशन की सच्चाई सिर्फ उसकी बातों से नहीं, बल्कि वास्तविक समाज में उसके कार्यों से पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर की जानी चाहिए। अब अग़र समाज की वास्तविक परिस्थिति को देखें तो भिन्न-भिन्न प्रकार के ‘‘प्रोफेशन‘‘ और ‘‘धंधों‘‘ के होते हुए भी एक ओर लाखों लोग भुखमरी, कुपोषण और सामान्य चिकित्सा के आभाव में दम तोड़ देते हैं, और दूसरी ओर अय्याशी के नये-नये सामानों से बाजार पटा हुआ है; एक ओर 12 से 16 घंटे काम करने के बाद भी करोड़ों लोगों की रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी नहीं होतीं और दूसरी तरफ़ मनोरंजन उद्योग में अय्याशी के सामानों को बेचने के लिए अरबों रुपये खर्च किये जाते हैं; एक ओर भुख़मरी की कगार पर जीने वाले लाखों ग़रीब किसान आत्महत्या कर रहे हैं और दूसरी तरफ आये दिन नए-नए विलासिता के सामान बनाने की देशी -विदेशी कम्पनियाँ लगवाई जाती हैं। ऐसी स्थिति में यह सोचना बेमानी है कि अगर हम अपने प्रोफेशन में ईमानदारी से काम करें तो हम अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को भी निभा रहे हैं। प्रोफेशन को समाज की उन्नति के लिए इस्तेमाल करने के बारे में ये प्रोफेशनवादी खोख़ले शब्द सिर्फ सुनने में अच्छे लगते हैं, लेकिन समाज की वास्तविकता से उनका कोई मेल नहीं।
आजकल ज़्यादातर युवा और सोचने-समझने वाले आम लोग अपने संकुचित सामाजिक दायरे में बैठकर अख़बार, पत्रिकाओं या टीवी में दिखाये जाने वाले लुभावने कार्यक्रमों के माध्यम से, सेल्फ-हेल्प की किताबें पढ़कर या किसी गुरू के पास जाकर उसके प्रवचनों के माध्यम से दुनिया को देखते हैं और उसी के अनुरूप हर क़दम पर समझौता करते हुए अपने जीवन और दृष्टिकोण को ढालते जाते हैं! आज हमें इस झूठे ख़ोल को तोड़कर समाज के प्रोफेशन और धंधों की असली तस्वीर को सभी के सामने लाना होगा जिससे हर व्यक्ति अपनी आँखों से सच्चाई को देख सके। सिर्फ तभी समाज में फैली बेहिसाब असमानता और अनेक लोगों की मेहनत पर पल रहे मुट्ठी भर लोगों की परजीवी ज़िंदगी की सच्चाई को सभी के सामने बेनकाब किया जा सकता हैं। तभी जानवरों की तरह जीने के लिये मज़बूर करोड़ों ग़रीब मज़दूरों और किसानों के संघर्षमय कठोर जीवन की सच्चाई को सबके सामने लाया जा सकता है, और तभी यह समझा जा सकता है कि अपने खोल में आराम से बैठकर प्रोफेशन और समाज सेवा के लिये जो सुविधाएँ कुछ मुठ्ठी भर लोगों को मिल रही हैं वे सिर्फ़ करोड़ों ग़रीबों की जी-तोड़ मेहनत के बदले उन तक पहुँच पा रही हैं (जो कुल आबादी का 80 प्रतिशत से भी बड़ा हिस्सा है, जिनमें से भारत की 77 प्रतिशत आबादी तो 20 रू. प्रति दिन पर जीती है..)। ऐसी अनेक सच्चाइयों को जानने के बाद हर सोचने-समझने वाला इंसान वर्तमान व्यवस्था की जन-विरोधी परजीवी स्थिति में प्रोफेशन का अर्थ समझ सकता है - कि आजकल लूट और धंधेबाजी के बीच प्रोफेशन को सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में नहीं बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी का भी धंधा बना दिया जा रहा है! इसी क्रम में आजकल लोगों के बीच काफी प्रसिद्ध हुए एक टीवी प्रोग्राम सत्यमेव जयते की बात करें तो इस तरह के प्रोग्राम लोगों को कुछ देर की मानसिक और भावनात्मक कसरत करवाकर समाज की यथास्थिति के प्रति उनके असंतोष को शान्त करने और युवाओं को कमाते-खाते हुए ‘‘शान्तिपूर्वक‘‘ लक्ष्यहीन जीवन जीने की ‘‘प्रेरणा‘‘ देने का काम करते हैं! सच तो यह है कि सामाजिक काम की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले टीवी-अख़बार-पत्रिकायें करोड़ों मेहनतकश ग़रीब लोगों की वास्तविक स्थिति की ज़्यादार सच्चाइयों को या तो छुपा देते हैं या फिर किसी एन.जी.ओ. के नाम पर कभी कोई रिपोर्ट दिखा कर चंदा इकठ्ठा करते हैं। लेकिन करोड़ो लोगों का शोषण करने वाली विश्व की मुनाफ़ा-केन्द्रित शोषक व्यवस्था में आम जनता के जीवन की सच्चाई को कभी नहीं दिखाते। इस सब के बीच पूरी दुनिया के करोड़ों लोगों की मेहनत पर पल रहे इस तरह के कुछ लोग कभी-कभी चीख उठते हैं, ‘‘हमें अपने काम को समाज के लिए पूरी मेहनत से करना चाहिए!!‘‘
समाज के सभी सोचने-समझने वाले लोग आज की अनेक चीजों से असंतुष्ट हैं, लेकिन शोषण और उत्पीड़न के सहारे चल रहे पूरे सिस्टम में अपनी आर्थिक पराधीनता और सामाजिक दबाब के बोझ तले दबे होने के कारण यही लोग समाज के घिसे-पिटे मूल्यों को चुनौती देने का साहस नही कर पाते और अपने जीवन के हर स्तर पर समझौता करके आसान रास्ते की तलाश में जीने की मनोवृत्ति में जकड़े रहते हैं। इन हालात में, आज नौजवानो को विचारों से लैस होकर एक सही दिशा में अपने व्यक्तित्व और दृष्टिकोण को ढालते हुए समाज के कूपमंडूक और अमानवीय सामाजिक मूल्यों से विद्रोह करने के लिए एकजुट होकर आगे बढ़ना होगा, ताकि एक नये समाज की नींव रखी जा सके।
संपर्क - जागरूक नागरिक मंच, 9910146445, 9911583733




Wednesday, August 15, 2012

कुपोषण भूख और बीमारियों से मरते बच्चों का भारत - आज़ादी के 65 साल बाद...

यूनीसेफ द्वारा जारी एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में हर साल बाईस लाख बच्चे निमोनिया और हैंजे की चपेट में आकर अपनी जान गँवा बैठते हैं। इनमें से छह लाख बच्चे अकेले भारत में दम तोड़ देते हैं। एक और रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर रोज तकरीबन नौ हजार बच्चे भूख और कुपोषण के कारण अपनी जान गँवा बैठते हैं, तथा 45% बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। शर्मसार कर देने वाले ये आँकड़े उस देश के हैं जो खुद को अगली महाशक्ति के रुप में प्रचारित करता है। ऐसा नहीं है कि हर साल होने वाली इन मौतों को रोका नहीं जा सकता है ज़्यादातर मामलों में इन मौतों के मुख्य कारण हैजा, निमोनिया, मलेरिया जैसी बिमारियाँ हैं जो लाइलाज बीमारियाँ नहीं हैं तथा अगर सरकार चाहे तो इन सभी बीमारियों की रोकथाम तथा पूर्ण इलाज संभव है। परंतु इस देश की तमाम चुनावी पार्टियों और उनके नेताओं को गरीब मेहनतकश जनता से ज़्यादा टाटा, बिड़ला, अंबानी और कुछ चंद अमीर लोगों की चिंता है जो इस देश की कुल आबादी का केवल 10-15% हिस्सा हैं। इतनी गंभीर और संकटमय स्थिति होने के बावजूद सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती है, आज भी सरकार कुल सकल घरेलू उत्पाद (जी.ड़ी.पी.) का केवल
1.4% हिस्सा ही स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं पर खर्च करती है। ऐसा नहीं है कि केवल किसी एक पार्टी के शासन में ही ऐसी स्थिति रही हो, आजादी के इन 65 वर्षों में कई चुनावी पार्टियों ने सत्ता संभाली परंतु इस दयनीय स्थिति को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हर साल दिमागी बुखार से होने वाली मौतें हैं, कार्पोरेट मीडिया के द्वारा विकास पुरुष के नाम से प्रचारित किए जाने वाले नीतीश कुमार के बिहार में ही इस  साल अब तक 227 बच्चे इस बीमारी की चपेट में आकर अपनी जान गँवा बैठे हैं। सन 1991 से जारी उदारीकरण, निजीकरण की नीतियों को जारी रखते हुए सरकार और तमाम चुनावी पार्टियाँ स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषय से भी अपना पल्ला झाड़ उसे भी निजी हाथों में सौंप देना चाहती हैं। सरकारी अस्पतालों की संख्या बढ़ाने तथा उनकी खराब अवस्था को सुधारकर अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ लोगों को प्रदान करने के बजाय सरकार अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने के नाम पर निजी अस्पतालों को सस्ती कीमत पर जमीन देकर उनके मुनाफे को बढ़ाने में लगी हुई है। सभी को समान एवं अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है तथा यह हर नागरिक का अधिकार भी है। लूट-खसोट पर टिकी इस व्यवस्था ने स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीज को भी एक माल बनाकर रख दिया है, जिसे सिर्फ वही खरीद सकता है जिसके पास उसकी कीमत चुकाने की क्षमता है। अतः सबको समान तथा अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना इस मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था में संभव नहीं है। सिर्फ इस अमानवीय व्यवस्था को बदलकर एक मानवीय व्यवस्था की स्थापना द्वारा ही ऐसा संभव है।
(संपर्क - जागरूक नागरिक मंच, 9910146445, 9911583733)




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