कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Sunday, May 13, 2012

दरिद्रता के आंकड़े या आंकड़ों की दरिद्रता ??

अभी हाल ही में योजना आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग़रीबों की संख्या में 2004-05 की तुलना में 7.3 प्रतिशत कमीं हो गई है। यह संख्या 2004-05 में 37.2 प्रतिशत थी जो 2012 में घटकर 29.9 प्रतिशत रह गई है। इस मुद्दे पर कई बहसें होती रहीं, कुछ सुझाव भी दिए गए और कुछ लोगों ने योजना आयोग की आलोचना भी की कि ग़रीबी रेखा निर्धारित करने के लिए गलत मानक लिए गए हैं। योजना आयोग के अनुसार ग्रामीण इलाकों में 26 रुपये प्रति दिन और शहरों में 32 रुपये प्रति दिन से कम आमदनी वाले व्यक्तियों को ग़रीबी रेखा के नीचे रखा गया है। और यह निर्धारण करते समय प्रति दिन आवश्यक ऊर्जा की मात्रा भी 1800 कि.कै. (किलो कैलोरी) तक कम कर दी गई है जो पहले ग्रामीण क्षेत्रो के लिए 2400 कि.कै. और शहरी क्षेत्रों के लिए 2100 कि.कै. थी। यानि अब ग़रीब लोगों को हर दिन खाने के लिए कम भोजन की आवश्यकता पड़ने लगी है और खाने के अलावा ग़रीब व्यक्तियों को और कोई आवश्यकता ही नहीं होती (??)। यह वास्तव में ग़रीबी का मानक नहीं बल्कि करोड़ों लोगों की नारकीय जि़न्दगी की सच्चाई और लगातार जारी लूट-खसोट को लोगों की नजरों से छुपाने का एक गोरखधंधा है। आज भी यदि हर दिन 9000 बच्चे भूख और कुपोषण से मर जाते हैं, हर साल हजारों किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैं, हर दिन अनेक लोग साधारण बीमारियों से सिर्फ इस लिए मर जाते हैं कि उनके पास दवाओं के लिए पैसे नही हैं, ऐसी परिस्थितियों में ग़रीबी रेखा का निर्धारण“  आम जनता के साथ किया जा रहा एक घटिया मजाक ह। आज देश में जिस प्रकार आर्थिक-सामाजिक असमानता बढ़ रही है, जिस प्रकार अमीरों और ग़रीबों के जीवन स्तर की खाई लगातार चैड़ी होती जा रही है, जिस प्रकार महंगाई और बेरोज़गारी बढ़ने से आम जनता की आमदनी लगातार घट रही है, ऐसी परिस्थिति में यह सिर्फ़ आम जनता को बेवकूफ़ बनाने का बेशर्मीपूर्ण तरीका है। वर्तमान समय में जब मुनाफ़ाखोरी चरम सीमा पर है और आम जनता की मेहनत की लूट पर कुछ लोग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, ऐसे में सरकार ग़रीबी के मानकों को कम करके करोड़ों लोगों को ग़रीबी रेखा के ऊपर पहुँचाने का काम बड़ी चालाकी से अंजाम दे रही है। आज एक ओर तो सारे संसाधन होने के बावजूद आम ग़रीब जनता नर्क जैसी हलत में जी रही हैं और दूसरी ओर सरकार इसे सुधारने की जगह पर छुपाने के प्रयास कर रही है, जिससे कि कुछ लोगों के फ़ायदे के लिए जनता को लूटने का काम ज़ारी रखा जा सके (!)। जैसा कि अक्सर होता है कि सरकार बड़े-बड़े उद्योगपतियों को हर साल हज़ारों करोड़ के बेलआउट पैकेज या आयकर में छूट देकर देश की सेवा“ (?) करती रहती है !!
ऐसे समय में कोई भी विचारशील व्यक्ति सिर्फ मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकता। आज हमें परिस्थियों को बदलने के लिए विकल्प की तलाष करनी होगी और समाज के एक नए ढांचे का सृजन करने के लिए आगे आना होगा। अब से लगभग 106 साल पहले रुसी मेहनतकश जनता की भयंकर दुर्दशा को देखकर जनता के महान लेखक गोर्की ने जो पंक्तियां लिखी थीं वो आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं - क्या हम सिर्फ़ यह सोचते हैं कि हमारा पेट भरा रहे? बिल्कुल नहीं।“  “हमें उन लोगों को जो हमारी गर्दन पर सवार हैं और हमारी आँखों पर पट्टियाँ बाँधे हुए हैं यह जता देना चाहिए कि हम सब कुछ देखते हैं? हम न तो बेवकूफ हैं और न जानवर कि पेट भरने के अलावा और किसी बात की हमें चिन्ता ही न हो। हम इंसानों का सा जीवन बिताना चाहते हैं! हमें यह साबित कर देना चाहिए कि उन्होंने हमारे ऊपर खून-पसीना एक करने का जो जीवन थोप रखा है, वह हमें बुद्धि में उनसे बढ़कर होने से रोक नहीं सकता!“ -( गोर्की के उपन्यास माँसे)
 

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