कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Thursday, March 22, 2012

23 मार्च (शहीद दिवस) पर शहीदों की याद में

23 मार्च 1931 को आज से 81 साल पहले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव अपने होंठो पर इंकलाब ज़िन्दाबाद का नारा लिये इस अरमान के साथ फाँसी पर चढ़े थे कि आने वाले समय में देश के नौजवान उनके सपने को पूरा करेंगे। एक ऐसे भारत का सपना जहाँ अमीर और ग़रीब का भेद हमेशा के लिए मिट जाए, जहाँ एक भी इंसान भूख की वजह से दम न तोड़ देता हो, जहाँ कोई भी किसी का शोषण न करता हो। लेकिन अगर आज हम अपने आस-पास ध्यान से देखें तो पायेंगे कि आम जनता के हालात तकरीबन अब भी वही हैं जो आज़ादी से पहले थे, हाँ इतना फर्क ज़रूर पड़ा है कि पहले देश पर विदेशी अंग्रेज़ों का शासन था जबकि आज उनकी जगह देश के ही कुछ लोग जनता पर शासन कर रहे हैं। आज़ादी का मतलब स्पष्ट करते हुए भगत सिंह ने कहा था कि अगर इन गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ शासन व्यवस्था संभाल लें, तो भी वह आज़ादी असली आज़ादी नहीं होगी। वह कह रहे थे कि जब तक पूरी शासन व्यवस्था पर जनता का नियंत्रण नहीं बल्कि कुछ चुने गए व्यक्तियों का नियंत्रण होगा, जब तक मेहनत करने वालों को अपनी मेहनत पर अधिकार नहीं मिलेगा, जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण होता रहेगा, तब तक सत्ता में चाहे कोई भी हो आम ग़रीब जनता के जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्रान्तिकारियों की ये बातें 23 मार्च (शहीद दिवस) पर शहीदों की याद में वर्तमान समाज की नंगी सच्चाई के बारे में आज भी उतनी ही सही हैं, जितनी की आज से 81 साल पहले थीं। आज देश की आज़ादी और समृद्धि सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित रह गयी है, जबकि आम मेहनतकश जनता लगातार बढ़ रही ग़रीबी, बेरोज़गारी और महँगाई से बदहाल है। आज जहाँ देश की ऊपर की मुठ्ठी भर आबादी के पास देश की कुल परिसम्पत्ति का 85 प्रतिशत हिस्सा इकठ्ठा हो चुका है, वहीं नीचे की 60 प्रतिशत आबादी को उसका महज़ दो प्रतिशत हिस्सा मिलता है। फोब्र्स पत्रिका द्वारा जारी अरबपतियों की नयी सूची के अनुसार भारत में इस समय 48 अरबपति हैं, और संख्या के हिसाब से चीन, रूस और संयुक्त राज्य अमरीका के बाद भारत चैथे स्थान पर है। परन्तु दूसरी तरफ इसी भारत में हर रोज 9000 बच्चे कुपोषण के कारण दम तोड़ देते हैं, और भारत के आठ राज्यों में ग़रीबों की संख्या 26 अफ्रीकी देशों में ग़रीबों की कुल संख्या से भी अधिक है। यह वो भारत नहीं है जिसका सपना भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने देखा था। आज शहीदों के उस सपने को पूरा करने की ज़िम्मेवारी हम सभी के कन्धों पर है। इसलिए आज हमारा यह फर्ज़ बनता है कि हम अपनी पूरी ताकत उनके क्रान्तिकारी विचारों को भारत के जन-जन तक पहुँचाने में लगाएँ, ताकि आने वाले समय में इन अमर शहीदों के सपने को हकीकत में बदला जा सके। भगत सिंह ने कहा था, जिस दिन ऐसी मानसिकता वाले बहुत से लोग हो जायेंगे जो पीड़ित मानवता की मुक्ति को हर चीज़ से ऊपर समझ कर उसके लिए अपनेआप को अर्पित करेंगे, उसी दिन आज़ादी का युग शुरू होगा।
(संपर्क- जागरूक नागरिक मंच, 9910146445, 9911583733)


Saturday, March 10, 2012

भूखा, नंगा, ठिठुरता गणतन्त्र



हर बार की तरह इस बार भी 26 जनवरी यानी गणतन्त्र दिवस आकर चला गया। सन 1950 में 26 जनवरी को इसी दिन नया संविधान बनाकर सारे देश पर थोप दिया गया था। कहने को तो यह संविधान सारे देश की जनता के लिए था लेकिन इसे बनाने में देश की मेहनतकश जनता की न तो कोई भूमिका थी और न उससे कोई राय ली गई थी। जिस संविधान सभा ने इस संविधान को लिखा था उसका चुनाव 13 प्रतिशत पैसेवाले लोगों ने मिलकर किया था। फिर इसमें हैरानी की क्या बात है कि पिछले 61 साल से इस देश की मेहनतकश जनता का शोषण और लूट-खसोट इस संविधान के तहत ही जारी है! आज़ादी मिलने के 64 साल बाद भी आज आम जनता के हालात बद-से-बदतर ही हुए हैं। अर्जुन सेनगुप्त कमेटी के अनुसार देश की 77 फ़ीसदी आबादी यानी कि 84 करोड़ लोगों की औसत आय 20 रुपया रोज है। देश की 56 प्रतिशत महिलाएँ एनिमिक हैं व 46 प्रतिषत बच्चे कुपोषित हैं। तक़रीबन 7 से 8 प्रतिशत की दर से उछाल भर रही अर्थव्यवस्था वाले देश में प्रतिदिन 9000 बच्चे भूख और कुपोषण-जनित बीमारियों से मरते हैं। देश के 35 करोड़ लोगों को प्रायः भूखा सोना पड़ता है। 1997 से अब तक एक लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। धनी-ग़रीब के बीच की खाई लगातार चैड़ी होती गयी है और आज देश की ऊपर की दस प्रतिशत आबादी के पास कुल परिसम्पत्ति का 85 प्रतिशत इकठ्ठा हो गया है जबकि नीचे की साठ प्रतिशत आबादी के पास महज़ दो प्रतिशत है। सन 1990-91 के दशक में सरकार ने वायदा किया था कि उदारीकरण-निजीकरण-भूमण्डलीकरण की नीतियों के लागू होने से देश की ग़रीब जनता तक समृद्धि रिस कर चली जायेगी पर हो गया उल्टा और देश की सारी समृद्धि निचुड़कर अमीरों और सेठों की तिजोरी में चली गयी। एक ओर गोदामों में लाखों टन अनाज को सड़ाया जा रहा है पर उन्हें भूखे और ज़रूरतमंद लोगों को सस्ते में इसलिए नहीं दिया जा रहा कि कहीं बड़े पूंजीपतियों-मालिकों को घाटा ना हो जाये, यानी इंसानी जीवन से कहीं ज़्यादा ज़रुरी है मुनाफ़ा! न्यायपालिका भी इस अराजकतापूर्ण मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था पर कभी कोई सवाल नहीं उठाती क्योंकि वो भी लूट और अन्याय पर टिकी इस व्यवस्था का ही एक खम्बा मात्र है। हर साल गणतन्त्र दिवस समारोह के नाम पर करोड़ों रुपये फूँक दिये जाते हैं और लुटेरे और भ्रष्ट नेता देशभक्ति के बारे में बेशर्मी के साथ भाषण देते हैं। गणतन्त्र का जश्न उन्हें ही मनाने दीजिए जो पिछले 61 साल से देश की सारी तरक्की की मलाई चाट रहे हैं। जिस आम मेहनतकश जनता के दम पर ये सारी तरक्की और चमक-दमक है, उनके लिए न तो इस आज़ादी का कोई मतलब है, और न गणतन्त्र का और एक मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था और बाज़ार की अंधी गला-काटू होड़ के रहते हुए हो भी नहीं सकता। जब तक लूट, अन्याय और ग़ैर-बराबरी पर टिका यह सामाजिक ढाँचा बना रहेगा तब तक देश के 85 प्रतिशत ग़रीबों और मेहनतकशों की जि़न्दगी में कोई बदलाव नहीं आने वाला है। यही वो यक्ष प्रश्न है जो आज़ादी के इतने सालों बाद आज हमारे सामने है और इसी का हल हमें मिलजुल कर ढूंढना है।

 

Most Popular