कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Sunday, December 18, 2011

नौजवानों के नाम


गौतम बुद्ध के बचपन से जुड़ी एक पुरानी कहानी के अनुसार उनके पिता ने अपने महल के चारों तरफ़ ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी कर रखी थीं। महल के अंदर मनोरंजन के पूरे इंतज़ाम किये गये थे। यह सब इसलिए किया गया ताकि महल के अंदर की चमक-दमक को देख बुद्ध यह भूल जायें कि महल की इस नकली चमक-दमक के बाहर भी एक और दुनिया है जहाँ भूख है, ग़रीबी है, बीमारी है। अगर हम आज के समय को देखें तो हम पायेंगे कि ऐसा ही कुछ हमारे नौजवानों के साथ भी किया जा रहा है। एक तरफ़ तो बड़े-बड़े मॉल, लम्बी-चैड़ी सड़कें और उन पर दौड़ती महँगी विदेशी गाडि़याँ, मोबाइल फ़ोन, टी.वी., फ्रिज आदि की लगातार बढ़ती बिक्री के आँकड़ों के माध्यम से हमें यह बताने की कोशिश की जा रही है कि भारत तेज़ी से विकास की राह पर है। टीवी सीरियलों और विज्ञापनों से ऐसी छवि बनाने की कोशिश की जाती है जैसे नौजवान होने का मतलब है बस खाओ-पिओ और ऐश करो! अगर नौजवानी सिर्फ़ ऐश के लिए ही है तब तो भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव नौजवान थे ही नहीं। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपये रोज़ से कम में गुज़ारा करती है, एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 9000 बच्चे हर रोज़ भूख और कुपोषण की वजह से दम तोड़ देते हैं। दूसरी तरफ़ मेहनतकशों की मेहनत को लूट कर मुट्ठीभर लोग ऐशो-आराम की जि़न्दगी जी रहे है। क्या एक नौजवान होने के नाते हमारा यह फ़र्ज़ नहीं बनता कि हम इस अन्याय के खिलाफ़ आवाज उठायें? आज जब दुनिया भर के नौजवान अन्याय के विरुद्ध अपने-अपने देश में आवाज़ उठा रहे हैं, चाहे वह मिस्र हो, ग्रीस या फि़र अमेरिका, तो क्या भारत के नौजवान चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठे रह सकते हैं? अब वक्त आ गया है कि हम भी अन्याय के खि़लाफ़ अपनी आवाज़ उठायें और इस नकली और बनावटी चमक-दमक वाली जिन्दगी को छोड़ उस सपने को पूरा करने के लिए कदम बढायें जिस सपने को लेकर  भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे शहीद इस उम्मीद के साथ फाँसी चढ़े थे कि भारत के नौजवान उसे पूरा करेंगे। एक ऐसी दुनिया बनाने का सपना जहाँ कोई किसी का शोषण ना करता हो, जहाँ कोई बच्चा भूख की वजह से ना मरता हो और जहाँ अमीर और ग़रीब का फ़ासला ना हो।


Saturday, November 19, 2011

जनसंख्या वृद्धि को लेकर किये जा रहे दुष्प्रचारों का सच

पिछले कुछ दिनों से दुनिया की जनसंख्या 7 बिलियन पहुँच जाने पर अलग-अलग प्रकार के आंकड़ों को लेकर अनेक अर्थशास्त्रियों में बहसें चल रही हैं जो जनसंख्या वृद्धि को हर समस्या का कारण सिद्ध करने की कोशिश में लगे हुए हैं। प्रमुख अखबार, टी.वी चैनल अपनी-अपनी रिपोर्ट के आधार पर यह साबित करने में जुटे रहे कि बेरोज़गारी, कुपोषण और भुखमरी की मुख्य वजह सिर्फ़ जनसंख्या वृद्धि ही है। परन्तु अगर हम आँकड़ों पर नज़र डालें तो सच्चाई कुछ और ही बयान करती नज़र आती है,
पहले पूरी दुनिया के संसाधनों के उपभोग और जनता की सामाजिक परिस्थिति को देखते है। द हिन्दू (1 नवंबर 2011) और विश्व बैंक द्वारा दिये गये कुछ आँकड़ों के अनुसार ऊपर के सबसे अमीर 20 प्रतिशत लोग कुल उपलब्ध संसाधनों के 75 प्रतिशत का उपभोग करते हैं (जबकि उन्हें उत्पादन करने के लिये कोई हाथ-पैर नहीं चलाने पड़ते), जबकि नीचे के सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोग कुल उपलब्ध संसाधनों के 1.5 प्रतिशत का ही उपभोग करते हैं या कहें कि बचे हुए 80 प्रतिशत लोग 25 प्रतिशत उपभोग पर गुज़ारा कर रहे हैं। और यह 80 प्रतिशत लोग समाज में मौजूद हर चीज़ को अपनी मेहनत से पैदा करते हैं, लेकिन अपने लिये नहीं बल्कि दूसरों के लिये, जैसा कि ऊपर के आंकड़ों से स्पष्ट है।
2007 के बाद चार वर्षों में भारत में खाद्य मूल्यों में 40 फ़ीसदी से 55 फ़ीसदी की बढोत्तरी हुई है और भूख से पीडि़त लोगो की संख्या बढी है, और यह ऐसे समय में हो रहा है जब देश मे फसलों का बम्पर उत्पादन हुआ है और 100 लाख टन गेहूँ गोदामों मे सड़ता रहा और दूसरी ओर अनेक ग़रीब बच्चे भूख और कुपोषण के कारण तड़पते हुए मरते रहे। द हिन्दू (13 जून 2011) में दिये गये आंकड़ों के अनुसार भारत में उत्पादन के कुल अनाज का 30 प्रतिशत हिस्सा भण्डारण के लिये गोदाम न होने के कारण आज भी नष्ट हो जाता है। यह सच्चाई तब भी सामने आ जाती है जब हम पाते हैं कि भारत मे हर साल करीब बीस लाख बच्चे पाँच साल की उम्र से पहले मर जाते हैं और 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं परन्तु भारत सरकार अपने कुल बजट का केवल 0.5 प्रतिशत हिस्सा ही स्वास्थय सेवाओं पर खर्च करती है।
ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट, ओवरव्यू, द यूएनडीपी, के अनुसार दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आवश्यक अतिरिक्त खर्च 40 अरब डालर होगा और कुछ विशेष मदों पर सालाना व्यय के आँकड़ों की सूची देखें।
इन सारे आँकड़ों को देखकर स्वयं ही स्पष्ट हो जाता है कि समस्या जनसंख्या या संसाधनों की कमी नहीं है, बल्कि कुछ लोगों द्वारा प्राकृतिक-सामाजिक संपदा पर किया गया कब्ज़ा है, जो अपने मुनाफे़ और अति विलासिता के लिये लगातार बहुसंख्यक जनता के शोषण में लिप्त हैं, और जनता द्वारा पैदा किए जाने वाले संपूर्ण सामाजिक उत्पादन के 75 प्रतिशत हिस्से का उपभोग कर रहे हैं। इन आँकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि जनता की बदहाली का कारण पूरी प्राकृतिक-सामाजिक सम्पदा और उत्पादन के साधनों पर कुछ लोगों द्वारा अपने स्वार्थ, लोभ और निजी हितों के लिये किया गया कब्जा है।








Tuesday, September 6, 2011

भ्रष्टाचार, 'समस्याएँ' और "क्रांति"


अन्ना जी द्वारा 16 अगस्त को शुरू किये गये अनशन के दौरान पूरे देश के  मध्य वर्ग का एक हिस्सा जिस प्रकार सड़कों पर भ्रष्टाचार के विरोध में दिखा वह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, बल्कि लगातार बढ़ रही बेरोजगारी, गैर-बराबरी, महंगाई जैसी समस्याओं के कारण जनता में जो गुस्सा व्याप्त था वह भ्रष्टाचार के विरोध के रूप में उभर कर सामने आया। मगर सिर्फ भ्रष्टाचार को सारी समस्याओं से ऊपर रखते हुए जनता के सारे गुस्से को सिर्फ जन लोकपाल कानून पारित करवाने के आन्दोलन तक सीमित कर दिया गया। जिस तरह इस पूरे आन्दोलन को दूसरे "स्वतंत्रता संग्राम"  और एक नयी "क्रांन्ति" के रूप में प्रचारित किया गया, ऐसे में हर नागरिक को, वह चाहे इसका समर्थन करता हो या न करता हो, कुछ अहम सवालों पर सोचने की आवश्यकता है, जैसे कि
1. काम के दौरान होने वाले मानसिक और शारीरिक शोषण के साथ बेरोजगारी, जैसी सामाजिक समस्या के लिए क्या भ्रष्टाचार जिम्मेदार है? 
2. लगातार बढ़ रहे सामाजिक फासले, हर व्यक्ति में व्याप्त आजीविका की असुरक्षा, और सम्पत्ति के लोभ-लालच पर आधारित सामाजिक सम्बन्धों पर किसी कानून का क्या असर होगा, जो कि हर भ्रष्टाचार की जड़ हैं
3. क्या यह आन्दोलन जनता को समाज की समस्याओं के मूल कारण के बारे में जागरूक कर रहा है
4. इस आन्दोलन का सहारा लेकर मीडिया पूरी जनता का सारा ध्यान समाज में व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी और असमानता से हटाकर सिर्फ भ्रष्टाचार को हर समस्या के एक काल्पनिक कारण तक सीमित करने की कोशिश में क्यों लगा है
5.  क्या इस पूरे प्रचार के माध्यम से कानूनी रूप से होने वाले पूँजीवादी शोषण और अनेक कानूनी भ्रष्टाचारों को जनता की नजरों से छुपाने का प्रयास नहीं किया जा रहा है
6.  क्या जन लोकपाल के माध्यम से व्यापक जनता (सिर्फ मध्य वर्ग ही नहीं...) की पहलकदमी जागेगी, जो कि सबसे अधिक शोषित है और जो जनवाद और जनतंत्र की निर्माता होती है
7.  अन्त में, सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि (इतिहास या वर्तमान मं) क्रान्तियों का उद्देश्य तो शोषण पर आधारित आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को बदलना होना चाहिए, जबकि जन लोकपाल कानून पारित करवाने का उद्देश्य शोषण और गैर-बराबरी पर आधारित वर्तमान व्यवस्था को थोड़ा बेहतर करके जनता को यथास्थिति में बनाए रखने के प्रयास जैसा लग रहा है।
ऐसे में इसे क्रान्ति कहना क्या सही होगा? क्या सिर्फ भ्रष्टाचार समाप्त होने से कुछ मुठ्ठी भर लोगों के लोभ-लालच से पैदा हो रही गैर-बराबरी और जनता की बदहाली समाप्त हो जायेगी? यदि नहीं.. तब क्या जनता को भ्रष्टाचार से आगे बढ़कर समाज की व्यापक परिस्थितियों को समझते हुए एक क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन के लिए आगे नहीं आना चाहिए? भविष्य में हर प्रकार के शोषण को समाप्त करने के लिये जन क्रान्तियाँ जनता द्वारा ही होनी हैं, और शोषण पर आधारित व्यवस्था को किसी भी प्रकार से जारी नहीं रखा जा सकता। भगत सिंह के शब्दों में, "जब तक पहले न्याय न हो, तब तक सद्भावना की बात करना अनर्गल प्रलाप है, और जब तक इस दुनिया का निर्माण करने वालों का अपनी मेहनत पर अधिकार न हो, तब तक न्याय की बात करना बेकार है।"

Saturday, May 28, 2011

जड़तापूर्ण समय में

''यदि केवल शब्दों के द्वारा ही किसी जड़ पदार्थ पिंड को गतिमान करना हो तो इस काम की कठिनाइयों की कोई सीमा नहीं है। लेकिन यदि कोई भी भौतिक शक्ति तुम्हारे साथ नहीं है तो कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।...और कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्‍खलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है।''

1947 से पहले हमारे देश के कुछ नौजवान क्रांतिकारियों ने आज़ाद भारत के भविष्य के निर्माण के लिये जो सपने देखे थे, जिसके लिए उन्होंने कुर्बानियाँ दी थीं, वे सपने आज भी अधूरे हैं।
आज आजादी कुछ मुठ्ठीभर लोगों तक सीमित रह गई है। यही मुट्ठीभर लोग देश की मेहनतकश बहुसंख्यक आबादी द्वारा पैदा किये हुए संसाधनों पर ऐश कर रहे हैं और दूसरी तरफ, समाज की 80 फ़ीसदी आबादी जानवरों की तरह जीने के लिए मजबूर है, बावजूद इसके कि एक गरिमामय जीवन जीने के लिये आवश्यक सभी संसाधन और उद्योग मौजूद हैं ।
आज दो वक्‍़त की रोटी और सम्मान से जीने के संघर्ष में करोड़ों लोग अपना पूरा जीवन लगा देते हैं, और फ़ि‍र भी उन्हें चैन से जीने का मौका नहीं मिलता। जहाँ करोड़ों लोगों के व्यक्तित्व को पूँजी से कुचला जा रहा है, जहाँ समाज के सारे रिश्ते-नाते आने-पाई के बर्फीले सागर  में डुबो  दिए गए हैं। किसी के पास संपत्ति न हो तो पूरे समाज के लिए उसके जीवन का कोई मूल्य नहीं रह जाता, क्योंकि आज व्यक्ति का नहीं बल्कि उसकी सम्पत्ति का सम्मान किया जाता है। ऐसे निराशापूर्ण दौर मे बेरोज़गारी, ग़रीबी, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, दहेज के लिए महिलाओं को ज़ि‍दा जलाने की घटनाओं का होना, चिकित्सा ना मिलने से हर दिन हज़ारों बच्चों की मौत हो जाना जैसी घटनाये आम बात हो चुकीं हैं। क्या यही वह आज़ादी हैं जिसके लिए अनेक शहीदों नें अपने प्राणों की आहुति दी थी?
नहीं! भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, चंद्रशेखर आज़ाद, भगवतीचरण वोहरा आदि नौजवान क्रांतिकारियों ने ऐसा भारत बनाने के लिए अपना जीवन न्‍योछावर नहीं किया था!
ऐसे समय में कोई नौजवान सारी दुनिया से कटकर सिर्फ़ अपने लिये कैसे जी सकता हैं? आज जिस दौर में हम खड़े हैं, जिन परिस्थितियों में हम जी रहे हैं, और करोड़ों मेहनतकश लोग ज़ि‍न्दा रहने के लिये संघर्ष कर रहे हैं, ऐसे समय में क्‍या हर संवेदनशील व्यक्ति को एक नई शुरुआत करने और चीज़ों को बदलने के लिये आगे नहीं आना चाहिये?
इस दीवार पत्रिका के माध्यम से हमारा प्रयास है कि तमाम संवेदनशील नागरिकों का आह्वान  करें और एक बेहतर समाज का निर्माण करने के लिये मिलजुल कर प्रयास किया जायें ।


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